मेरी हर धड़कन भारत के लिए है...

सोमवार, 2 सितंबर 2013

आर्थिक स्थिति और देश

                                        एक समय देश को सबसे बड़े आर्थिक संकट से बाहर निकालने और वित्त मंत्री के रूप उल्लेखनीय काम करने वाले और आज के पीएम मनमोहन सिंह पर आज तरह तरह के आरोप लग रहे हैं कि उन्होंने देश को आर्थिक संकट की तरफ़ धकेल दिया है खुद संसद में पहली बार मनमोहन इतने सख्त लहज़े में बोले कि लगा जैसे वे वास्तव में इस पूरे परिदृश्य से बहुत व्यथित हैं पर कहीं से भी हमारे राजनैतिक दलों ने इस बात पर आम सहमति नहीं दिखाई कि आपसी विमर्श से मनमोहन सिंह को समय रहते वे संसाधन उपलब्ध कराये जाएँ और उनको वे आर्थिक क़दम उठाने की छूट भी दी जाये जिन पर चलकर देश की अर्थ व्यवस्था की रफ़्तार को लगातार तेज़ रखने में मदद मिल सकती है ? ऐसा नहीं है कि आज पीएम के पास उपायों की कमी है पर उन उपायों पर चलने के लिए जिन नीतिगत परिवर्तनों की आवश्यकता है आज कोई भी उनको लागू करवाने में इच्छुक दिखाई नहीं देता है जिससे उपाय होने के बाद भी उन पर विचार कर पाना संभव नहीं हो पा रहा है ? देश से जुड़े हुए महत्वपूर्ण परिवर्तनों को अकेले कर पाने का बहुमत संप्रग के पास नहीं है और देश की राजनीति उन्हें कुछ करने नहीं देती है.
                                       आज भाजपा इस बात को कह रही है कि यदि पीएम को इस संकट से बाहर निकलने का कोई मार्ग नहीं दिखा रहा है तो वह उनसे परामर्श कर सकते हैं यह अच्छी बात है कि प्रतिपक्ष सरकार से इस तरह से महत्वपूर्ण मुद्दों पर अपनी राय को साझा करे क्योंकि देश में लोकतंत्र है कोई राजशाही नहीं और कल को जो आज प्रतिपक्ष में हैं उनके सत्ता में आने के अवसर सदैव ही खुले रहते हैं तो किसी भी लम्बे समय में प्रभाव दिखाने वाले किसी भी नीति को अपनाये जाने से कैसे रोका सकता है पर देश में आज तक ऐसी ही राजनीति होती रही है जिसके कारण से भी देश में आर्थिक सुधारों के कुछ क़दम आगे चलने के पीछे लौटने की गतिविधि बहुत आम हो चुकी है. जो लोग ९१ की नीतियों की आलोचना करने में नहीं चूकते हैं उन्हें तो यह भी नहीं पता है कि उसके कारण ही आज देश पूरी दुनिया में आर्थिक गतिविधियों को आगे बढाने के स्तर तक पहुँच पाया है और अब जब उन सुधारों की समीक्षा करने और आज के समय के अनुसार नीतिगत फैसले लेने का समय आया है तो संसद में कोई काम ही नहीं हो रहा है ?
                                       जब देश में इतने सारे राजनैतिक दल हैं तो उनकी अपनी अपनी आर्थिक विचारधाराएँ भी हैं पर जब तक इन सभी में देश के लिए दीर्घकालिक आर्थिक नीतियों के लिए काम करने की क्षमता नहीं उत्पन्न होगी तब तक देश को ऐसी जाम वाली स्थितियों का सामना करना ही पड़ेगा ? आज मनमोहन की आलोचना करने वाली भाजपा ने ही उनकी विनिवेश और अन्य नीतियों का लाभ उठाकर क्या देश की अर्थिक प्रगति में अपना योगदान नहीं दिया था यदि मनमोहन की ९१ की आर्थिक नीतियां इतनी ग़लत थीं तो अटल सरकार ने उनको पलटने के लिए कोई ठोस उपाय क्यों नहीं किये शायद इसलिए भी नहीं क्योंकि वे उस समय भारत के लिए सबसे अच्छी नीतियां ही थीं ? दुनिया की सबसे बड़ी आर्थिक शक्ति अमेरिका और यूरोप ने भी पिछले दशक में बड़ी आर्थिक मंदी झेली है पर उससे बचने के लिए जब वहां पर उपाय किये गए तो सभी नेताओं ने उनका एकमत से समर्थन किया और आज वहां पर फिर से अच्छी आर्थिक स्थिति बन रही है तो हमारे यहाँ केवल आलोचना करने और मीडिया के सामने सलाहें बांटने से क्या देश का भला हो सकेगा ? देश का भला करने के लिए सबसे पहले सभी दलों को हर परिस्थिति में संसद की कार्यवाही को चलाते रहने पर एक मत होना ही होगा तभी वहां पर किसी गंभीर विमर्श के बाद इस परिस्थिति से निकलने का रास्ता सामने आ सकता है.
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