लाचार और सुस्त कार्यवाही करना किसी भी सरकार के लिए कितनी बड़ी समस्या खड़ी कर सकता है इसका ताज़ा उदाहरण यूपी के मुज़फ्फरनगर में देखा जा सकता है जहाँ के कवाल क्षेत्र में दो मोटरसाइकिल्स में हुई भिडंत के बाद मामला इतना बिगड़ गया कि पूरे जिले में शांति लाने और विश्वास बहाली के लिए सरकार को सेना को बुलाना पड़ा और फ़िलहाल सरकारी सूत्रों के अनुसार तीन थाना क्षेत्रों में कर्फ्यू भी लगाना पड़ा है. आख़िर प्रदेश सपा की सरकार बनने के बाद ऐसा क्या हो गया है कि लगभग हर महीने किसी न किसी क्षेत्र से सांप्रदायिक तनाव या वर्ग संघर्ष की ख़बरें आम हो गयी हैं वैसे यह पहली बार नहीं है पर हमेशा ही सपा की सरकार बनने पर प्रदेश में इस तरह की घटनाओं में वृद्धि हो जाती है जबकि अन्य दलों की सरकारों में ऐसा कुछ महसूस भी नहीं होता है जिससे यही लगने लगता है कि हो न हो यह पूरा मामला राजनीति से प्रेरित और प्रशासनिक अक्षमता का ही अधिक है क्योंकि यदि जिले में तैनात अधिकारी ही ठीक ढंग से अपनी जिम्मेदारियों का निर्वाह नहीं कर पाएंगें तो लोग सुरक्षित कैसे रहेंगें ?
आज जो कुछ भी वहां पर हो रहा है तो उस स्थिति में वहां की ख़ुफ़िया पुलिस क्या सो रही थी क्योंकि दुर्गा नागपाल के मामले में केवल साम्प्रदायिक संघर्ष और प्रदेश के माहौल के खराब होने की बात करके ही तो अखिलेश ने उन्हें निलंबित किया था पर कवाल क्षेत्र में २७ अगस्त को हुई घटना के बाद आख़िर किस तरह से सरकार को यह समझ में नहीं आया कि जब मोटरसाइकिल्स की टक्कर में दूसरे समुदाय के दो लोगों की हत्या की जा सकती है तो ऊपर से शांत दिखाई देने वाला माहौल अन्दर से कितना उबल रहा है ? क्या पुलिस अधिकारियों के पास इतना भी समय नहीं है कि वे प्रशासन के साथ मिलकर सही कार्ययोजना बनाते और आवश्यकता पड़ने पर उस पर अमल करने में भी नहीं चूकते जिस तरह से पुलिस प्रशासन की निष्क्रियता के कारण ही समुदायों में वैमनस्य को बढ़ावा मिला उससे पूरे प्रदेश में क्या संदेश जाता है ? शायद सपा इस तरह के मामलों में निपटने के लिए लोगों को परिस्थितियों पर ही छोड़ देती है जिससे भी पूरा मसला और बिगड़ जाया करता है किसी भी तरह के धार्मिक या वर्ग संघर्ष में यदि सरकार और प्रशासन की तरफ़ से थोड़ी भी चूक होती है तो उसका खामियाजा पूरे समाज को ही भुगतना पड़ता है.
अच्छा हो कि अधिकारियों पर एक तरफ़ कार्यवाही करने के स्थान पर कानून सम्मत काम करने का दबाव बनाया जाए क्योंकि जब एक सामान्य दुर्घटना में दो लोगों को मारा जा सकता है तो सामजिक समरसता किस स्तर पर पहुंची हुई है यह सभी जानते हैं पर कोई भी उस सत्य को स्वीकार नहीं करना चाहता है कि वास्तव में स्थितियां कितनी प्रतिकूल हैं ? सरकार के पास अपनी राजनीति और विपक्ष के पास अपनी राजनीति है और उससे निपटने के लिए दंगाइयों के पास अपने वोटों की राजनीति है पर जब तक पूरे परिदृश्य में सही तरह से कार्यवाही को प्राथमिकता पर नहीं लिया जायेगा तब तक पूरे समाज को सुरक्षित करने में कोई भी सरकार सफल नहीं हो सकती है. आज आवश्यकता उस कारण को खोजने की है जिस कारण से एक सामान्य दुर्घटना पूरे प्रदेश को हाई अलर्ट तक पहुंचा देती है और सरकार की नीतियों के साथ प्रशाशनिक अक्षमता पूरे परिदृश्य पर हावी हो जाती है. आख़िर क्या कारण है एक ही तरह की ट्रेनिंग लिए हुए प्रदेश के अधिकारी जिन परिस्थितियों में कुछ नहीं कर पाते उन्हीं विपरीत परिस्थितियों में सेना आसानी से शांति लाने का काम कर सकती है ? सेना के सामने एक लक्ष्य होता है कि शांति लाई जाए जबकि स्थानीय प्रशासन को सरकार के दबाव में काम करने को बाध्य होना पड़ता है अब इस तरह के वर्ग संघर्ष वाले क्षेत्रों में विकास से जुड़ी सुविधाओं को सामान्य परिस्थिति बहाल होने पर रोकने का दंड भी जनता को देने का विकल्प होना चाहिए और जितना भी नुक्सान हो उसकी भरपाई एक दंडात्मक टैक्स लगाकर भी पूरी करनी चाहिए.
मेरी हर धड़कन भारत के लिए है...
आज जो कुछ भी वहां पर हो रहा है तो उस स्थिति में वहां की ख़ुफ़िया पुलिस क्या सो रही थी क्योंकि दुर्गा नागपाल के मामले में केवल साम्प्रदायिक संघर्ष और प्रदेश के माहौल के खराब होने की बात करके ही तो अखिलेश ने उन्हें निलंबित किया था पर कवाल क्षेत्र में २७ अगस्त को हुई घटना के बाद आख़िर किस तरह से सरकार को यह समझ में नहीं आया कि जब मोटरसाइकिल्स की टक्कर में दूसरे समुदाय के दो लोगों की हत्या की जा सकती है तो ऊपर से शांत दिखाई देने वाला माहौल अन्दर से कितना उबल रहा है ? क्या पुलिस अधिकारियों के पास इतना भी समय नहीं है कि वे प्रशासन के साथ मिलकर सही कार्ययोजना बनाते और आवश्यकता पड़ने पर उस पर अमल करने में भी नहीं चूकते जिस तरह से पुलिस प्रशासन की निष्क्रियता के कारण ही समुदायों में वैमनस्य को बढ़ावा मिला उससे पूरे प्रदेश में क्या संदेश जाता है ? शायद सपा इस तरह के मामलों में निपटने के लिए लोगों को परिस्थितियों पर ही छोड़ देती है जिससे भी पूरा मसला और बिगड़ जाया करता है किसी भी तरह के धार्मिक या वर्ग संघर्ष में यदि सरकार और प्रशासन की तरफ़ से थोड़ी भी चूक होती है तो उसका खामियाजा पूरे समाज को ही भुगतना पड़ता है.
अच्छा हो कि अधिकारियों पर एक तरफ़ कार्यवाही करने के स्थान पर कानून सम्मत काम करने का दबाव बनाया जाए क्योंकि जब एक सामान्य दुर्घटना में दो लोगों को मारा जा सकता है तो सामजिक समरसता किस स्तर पर पहुंची हुई है यह सभी जानते हैं पर कोई भी उस सत्य को स्वीकार नहीं करना चाहता है कि वास्तव में स्थितियां कितनी प्रतिकूल हैं ? सरकार के पास अपनी राजनीति और विपक्ष के पास अपनी राजनीति है और उससे निपटने के लिए दंगाइयों के पास अपने वोटों की राजनीति है पर जब तक पूरे परिदृश्य में सही तरह से कार्यवाही को प्राथमिकता पर नहीं लिया जायेगा तब तक पूरे समाज को सुरक्षित करने में कोई भी सरकार सफल नहीं हो सकती है. आज आवश्यकता उस कारण को खोजने की है जिस कारण से एक सामान्य दुर्घटना पूरे प्रदेश को हाई अलर्ट तक पहुंचा देती है और सरकार की नीतियों के साथ प्रशाशनिक अक्षमता पूरे परिदृश्य पर हावी हो जाती है. आख़िर क्या कारण है एक ही तरह की ट्रेनिंग लिए हुए प्रदेश के अधिकारी जिन परिस्थितियों में कुछ नहीं कर पाते उन्हीं विपरीत परिस्थितियों में सेना आसानी से शांति लाने का काम कर सकती है ? सेना के सामने एक लक्ष्य होता है कि शांति लाई जाए जबकि स्थानीय प्रशासन को सरकार के दबाव में काम करने को बाध्य होना पड़ता है अब इस तरह के वर्ग संघर्ष वाले क्षेत्रों में विकास से जुड़ी सुविधाओं को सामान्य परिस्थिति बहाल होने पर रोकने का दंड भी जनता को देने का विकल्प होना चाहिए और जितना भी नुक्सान हो उसकी भरपाई एक दंडात्मक टैक्स लगाकर भी पूरी करनी चाहिए.
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बहुत ही बेहतरीन समसामयिक आलेख,आपका आभार।
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