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गुरुवार, 26 जून 2014

राजधानी दुर्घटना और जवाबदेही

                                                 एक बार फिर से डिब्रुगढ़ राजधानी जैसी देश की सबसे महत्वपूर्ण श्रेणी की ट्रेन के अज्ञात कारणों से दुर्घटनाग्रस्त होने पर जहाँ रेलवे बोर्ड और रेल मंत्रालय के कार्यकलापों पर उंगलियां उठनी शुरू हो चुकी हैं वहीं यह भी स्पष्ट होता जा रहा है कि पूरे मामले में रेलवे के परिचालन से जुड़े अधिकारियों ने नक्सली हमले या पटरियों से छेड़छाड़ करने के इनपुट्स के बाद भी उसकी अनदेखी की. जिस तरह से रेल मंत्रालय, बिहार सरकार और केंद्रीय गृह मंत्रालय ने इस पूरे घटनाक्रम पर अलग अलग सुर अलापे उसका भी कोई मतलब नहीं बनता था. अच्छा हो कि इस तरह की किसी भी दुर्घटना के बारे में जानकारी देने के लिए आगे से भारत सरकार के प्रेस इनफार्मेशन ब्यूरो की तरफ से ही आधिकारिक बयान दिए जाएँ जो कि सभी मंत्रालयों की पूरी जानकारी जुटाने के बाद ही जारी किये जाये क्योंकि इस तरह की किसी भी संदिग्ध गतिविधि में विभिन्न मंत्रालयों के बीच सामंजस्य का होना और दिखाई देना बेहद आवश्यक होता है.
                                                इस मामले में जो सबसे महत्वपूर्ण बात सामने आ रही है कि स्थानीय रेलवे प्रशासन ने चेतावनी के बाद भी २० जनवरी २०१० को तत्कालीन रेल मंत्री ममता बनर्जी के आदेश पर लिए गए उस निर्णय का अनुपालन नहीं किया जिसमें यह कहा गया था कि नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में सुरक्षा सम्बन्धी इनपुट्स आने के बाद राजधानी और अन्य ट्रेनों के आगे रात १० बजे से सुबह ६ बजे तक एक पायलट इंजन चलाया जायेगा. इधर इस समस्या के कम हो जाने के कारण या लापरवाही के चलते इनपुट्स आने के बाद भी राजधानी के आगे पायलट इंजन नहीं भेजा गया था जो रेलवे में व्याप्त लापरवाह कार्य संस्कृति को ही दिखाता है जिस कारण से यह दुर्घटना हो गयी. इस मामले में किसी भी तरह की राजनीति किये जाने की कोई आवश्यकता भी नहीं है क्योंकि नयी सरकार के लिए इतनी जल्दी सभी बातें समझना भी इतना आसान यहीं है तो रेलवे बोर्ड के अधिकारियों को बुलाकर उनकी अच्छे से खबर ली जानी चाहिए जिससे आने वाले समय में परिचालन और सुरक्षा सम्बन्धी मामलों में लापरवाही निर्धारित की जा सके.
                                                पूरे मामले में रेल मंत्री की तरफ से एक नीतिगत चूक अवश्य ही हो गयी है जिसमें उन्होंने मृतकों के आश्रितों के लिए २ लाख रूपये की आर्थिक सहायता घोषित की जबकि रेलवे के नियम के अनुसार मृतकों को ५ लाख रूपये की सहायता दी जाती रही है. इस तरह के बयान के बाद रेल मंत्री अचानक से ही बिहार सरकार और अन्य विरोधी दलों के निशाने पर आ गये जबकि इस मामले में रेलवे बोर्ड को तुरंत ही रेल मंत्री को यह स्पष्ट कर भूल सुधार करवानी चाहिए थी. इस पूरे प्रकरण में यह स्पष्ट होता जा रहा है कि प्रशासनिक स्तर पर होने वाली लापरवाहियों के चलते सरकार और मंत्रालयों को किस तरह से असहज परिस्थितियों का सामना करना पड़ जाता है. अच्छा हो कि नए सांसदों की ट्रेनिंग की तरह ही नए बने रेल मंत्री को भी यदि संभव हो तो देश हित में रेलवे बोर्ड के सेवानिवृत्त अधिकारियों और पूर्व रेल मंत्रियों के साथ विचार विमर्श करने की कोशिश भी करनी चाहिए क्योंकि किसी भी तरह से देशहित में अच्छा करने के लिए यह बुरा भी नहीं कहा जा सकता है.      
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