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मंगलवार, 9 सितंबर 2014

दिल्ली की सरकार

                                                        दिल्ली की सरकार जिस तरह से पूरी तरह से भंवर में उलझती दिखायी दे रही है उसे यही लगता है कि आने वाले समय में वहां पर कुछ भी संभव है. राजनैतिक स्तर पर भाजपा वहां सरकार बनाने की कोशिशों में जिस तरह से लगी हुई है वह उसकी अपनी प्राथमिकता है पर आम आदमी पार्टी द्वारा इस मामले को कोर्ट में घसीटे जाने के बाद से परिस्थितियां बहुत बदल गयी हैं और एलजी व् सरकार के लिए कोई निर्णय कर पाना उतना आसान नहीं रह गया है. सोमवार को जिस तरह से आप ने एक स्टिंग के माध्यम से भाजपा पर निशाना लगाया और उसके बाद से भाजपा को जवाब देते नहीं बन रहा है तो अब दिल्ली में चुनावों की संभावनाएं बलवती हो चुकी हैं. सरकार के लिए कोई भी फैसला करना केवल तब ही आसान रहने वाला था जब मामला केवल राजनैतिक मोर्चे पर ही चल रहा होता और जिस तरह से कोर्ट ने पिछले महीने में सरकार को कई बार कड़े निेदेशों और सवालों से परेशान किया है तो मोदी-शाह की टीम इसे हलके में नहीं ले सकती है.
                                                      राजनैतिक संभावनाएं और प्राथमिकताएं किस तरह से नेताओं और सामान्य लोगों को अपने निर्णयों से पलटने की तरफ धकेल देती हैं यह सभी लगातार देखते ही रहते हैं पर फरवरी में संप्रग सरकार ने जिस तरह से नयी सरकार पर दिल्ली का मामला छोड़ दिया था वह अब राजग सरकार के गले की हड्डी साबित हो रहा है. पिछले वर्ष के विधान सभा चुनावों और आम चुनावों के बाद दिल्ली की जनता में भाजपा के प्रति उतना लगाव नहीं रह गया है यह बात भाजपा की समझ में भी आ रही है और उसी डर के कारण वह अपन स्तर से दिल्ली विधान सभा भंग कर चुनाव करवाने के पक्ष में नहीं दिखाई देती है. भाजपा के पक्ष में कांग्रेस से कुछ अलग कर दिखाने का यह मौका भी हाथ से जाता रहा है क्योंकि अब उसके नेताओं को अपने ही दिल्ली पार्टी के नेताओं से स्पष्टीकरण मांगने पड़ रहे हैं फिर भी उस पर कीचड उछल ही जा रहा है. जोड़-तोड़ से सरकार बनाने की किसी भी कोशिश का खुलेआम विरोध करने वाले पार्टी खुद परदे के पीछे यही खेल खेलने में लगी हुई है.
                                        दिल्ली की जनता ने भी जिस तरह से शीला दीक्षित की सरकार देखी और उसके बाद चल रही यह उठापटक भी तो भाजपा के लिए यह स्थिति सुखद तो नहीं हो सकती है. वैसे भी कांग्रेस द्वारा नियुक्त किये गए राज्यपालों में सिर्फ शीला दीक्षित को अभयदान मिला हुआ था कि वे जब तक चाहें पद पर बनी रह सकती हैं क्योंकि भाजपा उनके दिल्ली कि राजनीति में सक्रिय होने के नुकसान को अच्छी तरह से समझती है. राजनाथ सिंह का स्पष्ट सन्देश भी शीला को दिल्ली की राजनीति के करीब लाने से नहीं रोक सका जो कि अब भाजपा के लिए और भी कठिन परिस्थितियों के समान है. अच्छा होता कि भाजपा इस बार बिना किसी देर के चुनाव करवाने की घोषणा कर देती जिससे उसके पास भी यह कहने का अवसर तो रहता कि उसने अलग तरह से काम किया है पर दिल्ली में वह दूसरी यूपी की कल्याण सरकार की तरह ही पिछले दरवाज़े से अपनी सरकार बनाने में लगी हुई है जिसका असर उसकी चुनावी संभावनाओं पर तो पड़ ही चुका है.       
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