मेरी हर धड़कन भारत के लिए है...

सोमवार, 20 अक्तूबर 2014

चुनाव और यथार्थ

                                                                              हरियाणा और महाराष्ट्र के विधानसभा चुनावों में जिस तरह से जनता से क्रमशः दो और तीन बार से सत्ता संभाल रही कांग्रेस और गठबंधन सरकार के विरोध में अपना मत दिया है उससे यही लगता है कि जिन राज्यों की राजनीति अभी तक भाजपा की स्थिति दूसरे दर्ज़े की रहा करती थी आज वह वहां पर अपने दम पर काफी कुछ पाने की स्थिति में है. चुनाव के पूर्व जिस तरह से भाजपा ने दोनों राज्यों में अपने पुराने गठबंधन को उतना महत्त्व नहीं दिया जितना अभी तक दिया जाता था तो उसके बाद ही यह स्पष्ट हो गया था कि इस बार मोदी और शाह की जोड़ी ने सीमित क्षमता के साथ खतरा उठाने की तरफ कदम बढ़ा दिया है. इस कदम का जहाँ हरियाणा में उसे पूरा लाभ मिल चुका है वहीं महाराष्ट्र में भी उसे मिलने वाले लाभ को अनदेखा नहीं किया जा सकता है क्योंकि शिवसेना उसे केवल १२० सीटें देने की बात ही कर रही थी तो उस स्थिति में उसके सभी उम्मीदवार भी जीत जाते तो वह वर्तमान संख्या से पीछे ही रहती.
                                                                              पांच माह पहले बनी केंद्र सरकार के कामकाज को लेकर अभी कोई विशेष बात सामने नहीं आई है और देश की जनता को जो उम्मीदें मोदी सरकार से हैं उनका वास्तविक असर दिखने में कम से कम दो साल का समय तो लगना ही है. साथ ही पीएम ने जिस तरह से आज अपने कद को भाजपा से बहुत ऊंचा कर किया है तो अब उनके लिए अपने इस कद के दम पर पार्टी के निर्णय शाह के माध्यम से करवाने में कोई दिक्कत भी नहीं हो रही है. आज भाजपा में इस जोड़ी का कोई विरोध नहीं है और वे जो चाहते हैं उसे आसानी से कर पाने में सक्षम हैं शायद यही कारण है कि हरियाणा में कोई भी खुद को सीएम पद का प्रत्याशी नहीं घोषित कर रहा है क्योंकि उसे पता है कि सभी को इस शीर्ष जोड़ी के आदेश को मानना ही है. आज जिस तरह से भाजपा के पक्ष में जनता का रुझान है उसे देखते हुए यह भी कहा जा सकता है कि अभी इस जोड़ी के पास प्रयोग करने के लिए पूरे तीन वर्ष पड़े हैं और यदि कोई कदम गलत साबित होता है तो उसे सँभालने के अवसर भी उपलब्ध रहने वाले हैं.
                                                                          विकास के इंडेक्स पर यदि देखा जाये तो दिल्ली की पिछली शीला सरकार, हरियाणा की हुड्डा सरकार और महाराष्ट्र की गठबंधन सरकार ने अपने काम को काफी हद तक सही ढंग से किया था पर राजनैतिक कारणों में कई बार सब कुछ पार्टयों कि सोच के अनुरूप नहीं चला करता है. कांग्रेस की तरफ से जो भी कमी रही है वह उसके शीर्ष नेतृत्व और राज्य स्तरीय नेतृत्व पर ही निर्भर है कि वे इसे किस तरह से लेते हैं और उसमें किस तरह के सुधारों की गुंजाईश देखते हैं क्योंकि विजय का वरण करने वाले बहुत होते हैं पर पराजय के साथ चलने वाले बहुत कम होते हैं. बेशक कांग्रेस नेतृत्व और पूरी पार्टी ने कहीं न कहीं जनता के उस विश्वास को तो काफी हद तक खोया है जो कभी उसका सम्बल हुआ करता था. हार के बाद अब यह देखने का विषय होगा कि कांग्रेस उसे किस तरह से लेती है और आने वाले समय में अपने आज के विपरीत समय में भी बचे हुए स्थायी वोट बैंक को बचाते हुए दूसरे दलों के साथ कैसे मुक़ाबला करती है.      
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