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सोमवार, 6 अक्तूबर 2014

डीज़ल पर अनिर्णय का शिकार सरकार

                                                              संप्रग सरकार की डीज़ल पर हर माह ५० पैसे प्रति लीटर की बढ़ोत्तरी की नीति के चलते पिछले महीने ही देश में डीज़ल पर से सब्सिडी का पूरा बोझ हट गया है और पिछले महीने से ही सरकारी तेल कम्पनियों को इस पर लाभ होने लगा है. देश में जनहित के मुद्दों पर त्वरित फैसले लेने का हल्ला मचाने वाली हमारी केंद्र सरकार के पास इस छोटी पर महत्वपूर्ण बात पर निर्णय करने के लिए समय नहीं है जिसका असर सीधे समाज के हर वर्ग पर पड़ने वाला है. सरकार ने जिस तरह से केवल अपने खज़ाने को भरने के लिए जनता से जुड़े हुए इस मुद्दे पर कोई निर्णय नहीं लिया है वह सरकार की मंशा को स्पष्ट रूप से दर्शाता है क्योंकि उनके इस निर्णय से कहीं निजी क्षेत्र की तेल कम्पनियों को अपने बंद पड़े पेट्रोल पम्प खोलने के लिए कोई अवसर तो नहीं दिया जा रहा है अब इस बात पर भी विचार किये जाने की आवश्यकता है क्योंकि पहले सब्सिडी के चलते सरकारी तेल सस्ता होने के कारण इनकी दुकानों पर ताला पड़ गया था.
                                                          इस पूरे प्रकरण में जिस तरह से निर्णय लेने वाली सरकार जानबूझकर अनिर्णय की तरफ गयी हुई है वह समझ से पर है क्योंकि एक समय था कि ५० पैसे की बढ़ोत्तरी किये जाने पर दिल्ली भाजपा एक त्यौहार की तरह हर माह प्रदर्शन किया करती थी जबकि उस समय के निर्णय सार्वजनिक क्षेत्र कि तेल कम्पनियों के लिए उचित थे पर आज उसकी सरकार प्रति लीटर दो रूपये से अधिक का लाभ कमाने में लगी हुई है और इस मसले पर कोई कुछ नहीं बोल रहा है. आर्थिक सेहत से जुड़े जिन मुद्दों पर मोदी सरकार इतने प्रयास कर रही है कहीं ऐसा तो नहीं है कि वित्त मंत्री अरुण जेटली के बीमार होने के चलते सरकार इस बात की गंभीरता को समझ ही नहीं रही है कि डीज़ल के दामों में कमी से पूरे देश में परिवहन सम्बन्धी गतिविधियों पर अच्छा असर पड़ेगा और वह फिलहाल कुछ लाभ कमाने के बारे में ही सोचने में लगी हुई है ?
                                                       मंचों से भाषण देने में माहिर पीएम के पास आज इतना समय कैसे नहीं है कि वे कैबिनेट की बैठक करके इसे सामान्य प्रक्रिया में आयोग के पास भेजने का काम तो कर ही देते जिस आचार संहिता के बारे में सरकार दबे स्वर में कह रही है उसके बारे में आयोग का स्पष्ट निर्देश है कि पूरे देश पर असर डालने वाले किसी भी निर्णय को लेने में सरकार पूरी तरह से स्वतंत्र है पर चुनाव वाले राज्य से जुड़े हुए किसी बड़े निर्णय को नहीं लिया जा सकता है. अब जब कोई बंदिश भी नहीं है तो सरकार का इस तरह का व्यवहार क्या जनता की जेबें काटने जैसा और बड़े उद्योगपतियों के हाथों में खेलने जैसा नहीं है पर आज की भाजपा में किसी के इतना दम नहीं है कि वह इस बारे में कुछ भी बोल सके तो चुनाव होने तक यह मामला लटका कर सरकार अपने ख़ज़ाने को बढ़ाना चाहती है जिससे वित्तीय घाटे को कुछ हद तक कम करने में सफलता भी मिल सके. कहीं ऐसा तो नहीं है कि पवन बंसल के द्वारा शुरू किये गए रेल किराया प्राधिकरण द्वारा अगले छह महीने के लिए आज के डीज़ल के दामों पर निर्णय होने तक सरकार चुप रहकर रेलवे को भी इसी चोर रास्ते से अपने घाटे कम करने के बारे में निर्णय लेने को तो नहीं कह चुकी है ?       
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