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मंगलवार, 20 जनवरी 2015

अध्यादेश-सरकार, विपक्ष और राष्ट्रपति

                                         अपने सात महीने के छोटे कार्यकाल में ही जिस तरह से मोदी सरकार ने ९ अध्यादेशों के माध्यम से नीतिगत परिवर्तन करने की तरफ कदम बढ़ाने शुरू किये हैं उनकी देश के मीडिया में तो चर्चा हो ही रही थी पर केंद्रीय विश्वविद्यालयों और अनुसन्धान संस्थाओं के प्राध्यापकों तथा छात्रों से वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के माध्यम से बातचीत करते हुए राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने जिस तरह से सरकार, विपक्ष और संसद को इससे बचने की सलाह दी है उसके बाद अब यह बहस भी ज़ोर पकड़ने वाली है. अपने लम्बे राजनैतिक जीवन में प्रणब ने जिस तरह से विभिन्न सरकारों के काम काज को देखा और समझा है उससे यही लगता है कि उनकी इस नसीहत पर देश की संसद और सभी राजनैतिक दल अपने मतभेद भुलाकर देश को आगे की तरफ बढ़ाने की नीतियों पर सोचना शुरू करेंगें हालाँकि राजनैतिक मतभेदों को देखते हुए यह बहुत मुश्किल काम लगता है. एक महत्वपूर्ण बात जो और उन्होंने कही कि सरकार को संसद के संयुक्त अधिवेशन में बिल पारित करवाने से भी बचना चाहिए क्योंकि ऐसा अभी तक केवल चार बार ही किया गया है.
                                             इस पूरे मामले में कहीं न कहीं से भाजपा की राजनैतिक कुशलता दांव पर लगी हुई है क्योंकि इस बार उसे लोकसभा में स्पष्ट बहुमत मिला हुआ है तीस वर्षों में किसी सरकार के पास पहली बार बहुमत है पर इसे और क्या कहा जा सकता है कि सरकार बड़े मुद्दों पर विपक्षी दलों के साथ कहीं से भी समन्वय स्थापित नहीं कर पा रही है जिसका कोई कारण समझ नहीं आता है. आज देश के लिए मोदी के रूप में कठोर प्रशासक तो है पर कई मामलों में उनकी स्थापित परम्पराओं की अनदेखी करने की गंभीर प्रवृत्ति के चलते भाजपा भी उनकी राह पर चलती हुई दिखाई दे रही है. आज सरकार के लिए काम करने वाले नेताओं में उस कौशल का पूर्णतः अभाव दिखाई देता है जो प्रमोद महाजन, लाल कृष्ण आडवाणी और सुषमा स्वराज जैसे नेताओं में था और जिसके दम पर अटल अपनी सरकार आसानी से चला लिया करते थे. आज संख्या बल पर सदन में सब कुछ कर लेने की मोदी की नीति के कारण ही संसदीय कार्य मंत्रालय सदन की बैठकों में विपक्ष के साथ काम करने लायक माहौल बना पाने में पूरी तरह से असफल ही दिखाई देने लगा है. अध्यादेशों के विरोध में रहने वाली भाजपा आज अपनी सरकार को ही अध्यादेशों के भरोसे चलाने की कोशिशें करती नज़र आती है.
                                     राष्ट्रपति ने यही बात अधिक हल्ला मचाने वाले विपक्ष के लिए भी कही है कि कम संख्या में होने के कारण केवल शोरग़ुल से सदन को बाधित करने को भी किसी तरह से सही नहीं कहा जा सकता है जिससे सरकार के साथ विपक्ष भी कटघरे में खड़ा दिखाई देने लगा है. यह सही है कि सरकार को विपक्ष को विश्वास में लेने के प्रयास करने चाहिए पर जिस तरह से भाजपा गैर भाजपाई दलों कि सरकारों पर सरकारी मशीनरी के दुरूपयोग के माध्यम से राज्यों में दबाव बना रही है तो उसकी परिणति इसी रूप में संसद को बाधित करने का काम करने में लगी हुई है. उल्लेखनीय है कि १९७१-७७ के बीच इंदिरा गांधी के प्रधानमंत्री रहते हुए कुल ९९ अध्यादेश लाए गए। इसके बाद १९९१-९६ में नरसिम्हा राव सरकार और १९९६ -९८ वाजपेयी, देवगौड़ा और गुजराल के कार्यकाल में ७७-७७ बिल लाए गए। इस मामले में भाजपा द्वारा अध्यादेश सरकार कही जाने वाली मनमोहन सरकार ने १० वर्षों में सबसे कम केवल ६१ अध्यादेश ही जारी किये थे. इन आंकड़ों से यह स्पष्ट ही है कि वर्तमान सरकार के लिए अब आने वाले दिनों में अध्यादेशों को पारित कराने के लिए और अधिक सहभागिता की आवश्यकता पड़ने वाली है. सत्ता पक्ष की अपने दम पर सब कुछ करने की नीति और विपक्ष को उसे रोकने की कोशिशों के चलते ही आज विधायिका की यह दयनीय स्थिति बन  चुकी है क्योंकि पिछली लोकसभा को जिस तरह से भाजपा ने बाधित किया था संभवतः अब उसे उसका दुष्परिणाम ही भुगतना पड़ रहा है.
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