मेरी हर धड़कन भारत के लिए है...

गुरुवार, 26 नवंबर 2015

शीतकालीन सत्र और शंकाएं

                                                            भारतीय राजनीति में नरेंद्र मोदी के राष्ट्रीय पटल पर तीन दशकों बाद पूर्ण बहुमत के साथ सत्ता सँभालने के साथ ही बहुत कुछ ऐसा भी होना शुरू हुआ जिसके चलते आज संसद में काम होने के स्थान पर गतिरोध अधिक रहा करता है क्योंकि खुद पीएम और उनके महत्वपूर्ण मंत्रियों की तरफ से जिस तरह से संख्या बल को लेकर अपनी बढ़त का ज़िक्र किया जाता रहता है उससे विपक्ष हमला करने के किसी भी अवसर को हाथ से नहीं जाने देना चाहता है और सत्ता पक्ष की तरफ से भी मामले को शांत करने लायक मंत्री और नेता काम करते हुए नहीं दिखाई देते हैं. सर्वदलीय बैठक की औपचारिकता को लेकर कल जिस तरह से दोनों ही पक्षों ने विभिन्न मुद्दों पर अपनी सीमायें खींच दी हैं वह इस बात की तरफ ही इशारा करता है कि यह सत्र भी कुछ बहुत महत्वपूर्ण मुद्दों पर निर्णय नहीं ले पायेगा. सदन को चलाने की ज़िम्मेदारी सरकार की होती है इसलिए ही कई बार सरकारों को सामान्य कामकाज को सुचारू ढंग से चलाये रखने के लिए विपक्ष के सामने बहुत सारे मुद्दों पर झुकते हुए काम करना पड़ता है जो कि सामान्य परिस्थितियों में कोई भी सरकार पसंद नहीं करती है.
                                 देश में आज़ादी के बाद से ही चुनाव होते रहते हैं और केंद्र में सरकारें भी चलती रहती हैं पर पिछले कुछ वर्षों में देश के बड़े नेताओं की तरफ से जिस तरह से चर्चा के स्तर को लगतार गिराया जा रहा है उसके बाद छोटे नेता भी उसी श्रेणी में जाते हुए दिखाई देने लगे हैं. आज देश के सामने आने वाले विभिन्न मुद्दों पर जिस तरह से सत्ता और विपक्ष में तनातनी बढ़ी रहती है और उसका सीधा असर सदन की कार्यवाही पर भी दिखाई देता है तो क्या सरकार को उससे सबक लेने की आवश्यकता नहीं महसूस होती है ? विमर्श और आरोपों का स्तर जितना व्यक्तिगत होता चला जाता है संवाद की संभावनाएं भी उतनी ही क्षीण हो जाती हैं क्योंकि तब नेताओं के मन में सदन के सञ्चालन से अधिक उनका अहम आगे आ जाता है जिसकी परिणीति हंगामे युक्त सत्र में होती है. क्या सरकार ने कुछ ऐसा तलाशने की कोशिश की है जिसके अंतर्गत वह देश के लिए किसी बड़े नीतिगत परिवर्तन से पहले गुणवत्ता परक विचार करने के बारे में सोचे और सदन में देश के नेताओं की समवेत कोशिश सभी को दिखायी दे ? संसदीय कार्यमंत्री के रूप में वेंकैय्या नायडू अभी तक पूरी तरह से विफल ही साबित हुए हैं क्योंकि जब बात फ्लोर मैनेजमेंट की आती है तो उनका विरोधी दलों के साथ कोई तालमेल नहीं दिखाई देता है इसके बाद भी वे पीएम को इस पद के लिए उपयुक्त लगते हैं और सरकार को समस्या झेलनी पड़ती है.
                          आज जब जीएसटी पर सरकार के हाथों से समय फिसलता जा रहा है तो जेटली के साथ अन्य नेताओं ने भी यह कहना शुरु कर दिया है कि इस मुद्दे पर कांग्रेस समेत सभी विपक्षी दलों से बात कर उनकी शंकाओं का निवारण भी किया जायेगा. क्या यह उचित नहीं होता कि इस मामले पर संसदीय समिति अपना काम लगातार ठीक से करती रहती और विभिन्न दलों के नेताओं की उपस्थिति में ऐसे प्रयास कर लिए जाते जो सदन में इस विधेयक को बिना किसी समस्या के ही पारित करवाने में मदद करते ? मोदी सरकार केवल आवश्यकता पड़ने पर काम चलाऊ तरीके से विपक्ष के साथ तालमेल चाहती है जो कि किसी भी परिस्थिति में सही नहीं कहा जा सकता है क्योंकि जब मन में एक दूसरे के प्रति विद्वेष चरम पर होता है तो देश का क्या नुकसान हो रहा है इसे देखने वाला कोई भी नहीं होता है अब सरकार को इस परिस्थिति को समझना चाहिए तथा विपक्ष को भी भाजपा की तरह विरोध करने की राजनीति के स्थान पर मुद्दों पर आधारित विरोध को प्राथमिकता देनी चाहिए. नीतियां देश के लिए बनती हैं और उसके लिए जितनी सरकार ज़िम्मेदार होती है उतना ही विपक्ष भी ज़िम्मेदार होता है क्योंकि परिपक्व लोकतंत्र में सभी की भूमिका से इंकार भी नहीं किया जा सकता है.  
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