मेरी हर धड़कन भारत के लिए है...

शुक्रवार, 15 जनवरी 2016

सेना दिवस और सेना की चुनौतियाँ

                                            आज़ादी के बाद पहली बार १५ जनवरी १९४९ को भारतीय सेना के अंतिम ब्रिटिश कमांडर-इन-चीफ जनरल फ्रांसिस बुचर से ले० जनरल (बाद में फील्ड मार्शल) के.एम. करियप्पा द्वारा पद भार सँभालने के दिन को भारतीय सेना अपने लिए महत्वपूर्ण मानते हुए प्रति वर्ष सेना दिवस मनाती है जिसमें नई दिल्ली के मुख्यालय के साथ ही अन्य मुख्यालयों पर परेड और अन्य कई कार्यक्रम आयोजित किये जाते हैं. भारतीय सेना से जुड़े हर व्यक्ति के लिए यह बहुत ही गौरव का विषय होता है क्योंकि किसी भी सैनिक के लिए उसकी सेना की स्थापना दिवस और देश की रक्षा से अधिक महत्वपूर्ण कुछ भी नहीं हो सकता है. आज के परिप्रेक्ष्य में भारतीय सेना जिस तरह से देश के अंदर और बाहर लगातार सामने आने सामने वाली चुनौतियों से निपटनेमें सक्षम होती जा रही है उस स्थिति में अब सरकार और सेना दोनों को भविष्य की महत्वपूर्ण तैयारियों के बारे में सोचने के लिए त्वरित निर्णय लेने की आवश्यकता भी है. अभी तक अपने सीमित संसाधनों और बजट के चलते तथा विभिन्न तरह की अंतर्राष्ट्रीय परिस्थितियों से निपटने के लिए सेना की तैयारियों को पूरा नहीं कहा जा सकता है.
                        इस कमी को इस तरह से भी देखा जा सकता है कि भारत की तरफ से कभी भी युद्ध को भड़काने की कार्यवाही नहीं कि जाती है और अपनी इस पहले हमला न करने की नीति के चलते ही देश के नेताओं की सोच संभवतः उस तरफ नहीं गयी जिसके माध्यम से आज़ादी के बाद से देश की प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने के साथ आक्रमण की क्षमता में विस्तार की नीति भी होती. आज़ादी के बाद नेहरू के नेतृत्व में भारत ने जिस तरह से दो ध्रुवों में बंटी हुई दुनिया के लिए निर्गुट आंदोलन का रास्ता सुझाया और उस पर काफी हद तक सफलता भी पायी थी तो उसके बाद भारत को इस दिशा में अधिक सोचने की आवश्यकता ही महसूस नहीं हुई, हालाँकि इस नीति का खमियाजा पाक और चीन से हुए युद्धों में भारत ने झेला तब जाकर सेना को कुछ सुधारने की कवायद शुरू की गयी. वह समय ऐसा था कि अंग्रेज़ों के जाने और बंटवारे के बाद देश के पास संसाधनों का बहुत अभाव था जिसके चलते युद्ध से जुड़े मुद्दों पर बजट बढ़ाने पर देश के नेता कभी भी बहुत उत्साहित नहीं दिखाई देते थे.
                          आज सेना के सामने जो चुनौतियाँ हैं उनसे निपटने के लिए सरकार ने पहल करनी शुरू कर दी है और पिछले कुछ वर्षों में सेना के उपकरणों की सप्लाई में स्वदेशी योगदान लगभग ७७% से बढ़कर ८७% तक पहुँच गया है. सेना के पास मनोबल की कमी नहीं है और इस मनोबल के साथ यदि सही नीति और आवश्यक उपकरणों का सामंजस्य बैठाया जा सके तो भारतीय सेना किसी भी चुनौती से और भी आसानी से निपट सकती है. आज देश पर मंडरा रहे आतंकी खतरों से निपटने के लिए सेना से जुडी स्पष्ट नीति की आवश्यकता महसूस की जा रही है क्योंकि किसी भी हमले की स्थिति में सेना को पहले पीछे रखने की कोशिशें की जाती हैं और बाद में स्थिति को राज्यों द्वारा न संभाल पाने की स्थिति में सेना को बुलाया जाता है जबकि इस तरह की स्थिति में स्थानीय पुलिस-प्रशासन के साथ सेना की एकीकृत कमान की अविलम्ब स्थापना कर पूरे अभियान से सही तरीके से निपटा जाना चाहिए. हमारी सेना के पास सब कुछ है पर उसे स्पष्ट नीति और समस्या से निपटने की पूरी छूट नहीं मिल पाती है जो कि किसी भी लोकतान्त्रिक देश की समस्या होती है फिर भी अब इस मुद्दे पर सरकार को एक स्पष्ट नीति बनाकर सेना को इसके बारे में निर्णय लेने की छूट देने पर विचार करना चाहिए. 
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