मेरी हर धड़कन भारत के लिए है...

बुधवार, 20 जनवरी 2016

विनिवेश की हड़बड़ी

                                                          राजग की अटल सरकार के बाद जिस तरह से मोदी सरकार ने भी सार्वजनिक क्षेत्र की इकाइयों में अपने हिस्से को बेचकर एकमुश्त लाभ कमाने की विनिवेश नीति को आगे बढ़ाना शुरू किया है उस पर कानूनी सम्मति न होने के कारण मोदी सरकार की मंशा ही कटघरे में खड़ी हो गयी है. भारत जैसे देश में आज़ादी के बाद से ही सार्वजनिक उपक्रम बनाकर देश की विभिन्न आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए एक नीति बनाई गयी थी यहाँ पर यह ध्यान देने की बात है कि ये वे वर्ष थे जब देश को अपनी अधिकांश आवश्यकताओं के लिए विदेशों से आयात किये हुए सामान पर ही निर्भर रहना पड़ता था. आज जब आज़दी के सातवें दशक में इन उपक्रमों को खड़ा करने वाली सोच और बाजार को प्रभावित करने वाले उद्योगपति सरकारों और राजनैतिक दलों के साथ खड़े होने लगे हैं तो नेता और सरकारें भी इनको बेचने की दिशा में और अधिक काम करने के बारे में सोचने लगे हैं जिससे बेहतर परिचालन के स्थान पर इन उपक्रमों को बीमार और न चलने लायक बताकर सरकार इन्हें औने पौने दामों में बेचना भी चाहती है जिसका देश में उपलब्ध असीमित प्रतिभा को देखते हुए कोई औचित्य नहीं बनता है.
                                                 हिंदुस्तान ज़िंक के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार को अपनी हिस्सेदारी को बिना कानून में संशोधन के बेचने से पूरी तरह रोक दिया है जो इस बात को भी दर्शाता है कि सरकार की तरफ से अनावश्यक हड़बड़ी भी दिखाई जा रही है. निजी क्षेत्र में गयी हुई किसी भी सार्वजनिक इकाई ने विनिवेश के बाद किसी भी तरह का घाटा उठाया हो ऐसा कहीं से भी नहीं दिखाई देता है तो इस परिस्थिति में सरकार को अपनी कार्यप्रणाली में सुधार लाकर इसे सुधारने के बारे में सोचना चाहिए जिससे आम लोगों के जन जीवन से जुड़े हुए विभिन्न मुद्दों पर ये इकाइयां अपना सहयोग करती रहें. आज़ादी के बाद नेहरू इंदिरा के युग में जिस तरह से कम संसाधनों के बाद भी उनकी सरकारों ने हर क्षेत्र से जुडी सार्वजनिक इकाइयों से देश के विकास के पहिये को लम्बे समय तक घुमाने का अथक प्रयास किया था आज उस सोच को कमज़ोर करने की साज़िश ही हो रही है. कालांतर में सरकारों की कमज़ोर पकड़ और इन उपक्रमोें में नेताओं के अनावश्यक हस्तक्षेप से इनकी हालत बिगड़ती ही चली गयी और इन उपक्रमों में आज नेताओं के नीचे पल रहे अधिकारियों ने केवल नेताओं के हितों का ही ध्यान रखना शुरू कर दिया जिसका परिणाम इनके घाटे में आने के रूप में देश के सामने है.
                                           देश में प्रतिभा की कमी नहीं है यदि आज कमी है तो नेताओं की इच्छशक्ति में क्योंकि यदि नेता इन उपक्रमों में हस्तक्षेप करने बंद कर दें आने वाले समय में हमारे अधिकारी अपने प्रयासों से इन उपक्रमों को एक बार फिर से जीवंत बनाने में कोई कसर नहीं छोडेंगें. मोदी सरकार बेहतर गवर्नेंस पर काम कर रही है तो इन इकाईयों में विनिवेश से पहले इनके अध्यक्षों और प्रबंध निदेशकों को बुलाकर यह समझाना आावश्यक भी कि यदि उनकी तरफ से एक निश्चित कार्ययोजना के अनुरूप अपेक्षित सुधार नहीं दिखाई देता है तो उन्हें दण्डित भी किया जायेगा और सरकार के किसी भी अन्य उपक्रम या विभाग में सम्मिलित करने के स्थान पर उन्हें विनिवेश के बाद नए मालिक के साथ ही भेज दिया जायेगा. सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों में अब सख्ती के साथ कार्य संस्कृति विकसित करने की आवश्यकता भी है क्योंकि जब तक सरकारें इस दिशा में नहीं सोचेंगीं तब तक अपने सेवानिवृत्त होने तक नौकरी की गारंटी पाये अधिकारी भी क्यों काम करना चाहेंगें. सरकार के प्रयास सही दिशा में होने चाहिए पर उसके किसी भी काम में हड़बड़ी नहीं दिखाई देनी चाहिए और संभवतः मोदी सरकार की इस जल्दबाज़ी पर अब कोर्ट ने रोक लगाकर देश के लोगों के साथ न्याय ही किया है.  
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