देश में प्राथमिक शिक्षा पर एक संस्था प्रथम द्वारा जो रिपोर्ट जारी की गयी है वह वास्तव में ही आँखें खोलने वाली है. आज के समय में जिस तरह से सरकार की प्राथमिकता में बच्चों को केवल साक्षर करने के लिए ही प्रयास किये जा रहे हैं जिसका असर सीधे ही अब दिखाई देने लगा है. रिपोर्ट के अनुसार अधिकांश बच्चे जो कक्षा ५ में हैं कक्षा २ की पुस्तकें भी नहीं पढ़ पाते हैं. इसके लिए सीधे ही शिक्षा का तंत्र ज़िम्मेदार है. आज के समय में हम बच्चों को सपने तो चाँद के दिखा रहे हैं पर उनके लिए विज्ञान को पढ़ने लायक माहौल भी नहीं दे पा रहे हैं. केवल पढ़कर ही वे अपनी जानकारी बढ़ा लें यही बहुत है उनसे ऐसी स्थिति में और क्या आशा भी की जा सकती है ? जब बच्चे अपनी पाठ्य पुस्तकें ही नहीं पढ़ सकते तो उनसे किसी अन्य भाषा का ज्ञान आदि की उम्मीद करना ही बेईमानी है. प्राथमिक शिक्षा के स्तर पर जितने लोग उतनी बातें होती रहती हिं. क्यों नहीं कुछ चुने हुए प्रस्तावों में पर केवल आंकलन करने के लिए पढ़ाई करनी चाहिए जिससे यह पता चल सके की भारत के लिए कौन सा तंत्र ठीक है ? देश में ही कुछ लोग पूरी तरह से नयी पद्धति पर अपने यहाँ बच्चों को पढ़ाना शुरू भी कर चुके हैं फिर भी क्या कारण है की सरकार केवल देखने के लिए भी कुछ नहीं करना चाहिए. सबसे पहले एक काम किया जाना चाहिए कि देश में एक ही मानक पर पढ़ाई करायी जानी चाहिए. राज्यों के हाथ से पाठ्यक्रम बनाने की ज़िम्मेदारी वापस ले लेनी चाहिए जिससे सभी बच्चों को एक जैसा माहौल दिया जा सके. सरकार की तरफ से कैसे कैसे अघोषित आदेश जारी होते रहते हैं एक बानगी देखिये कि उत्तर प्रदेश में प्राथमिक कक्षाओं में कितने बच्चे अपनी कक्षा में फेल होते हैं ? सरकारी विद्यालयों के आंकड़े देख कर सभी चकरा जाने वाला है क्योंकि कोई फेल होता ही नहीं... जब किसी को फेल ही नहीं किया जायेगा तो बच्चों को किस बात का डर होगा ? किस तरह के मूल्यांकन के बाद बच्चों को अगली कक्षा में भेज दिया जाता है किसी के पास इस बात का उत्तर नहीं है ? जब इस तरह से ही पास कर दिया जाना है तो बच्चों पर अनावश्यक दबाव क्यों ? उन बच्चों का केवल नाम लिख लिया जाना चाहिए और उनको पुस्तकें दे देनी चाहिए और ५ साल बाद जाकर उन्हें पांचवी पास का प्रमाणपत्र दे देना चाहिए. इससे कम से कम सरकार का पढ़ाने पर लगने वाला खर्च तो बच ही जायेगा. कोई नहीं चिंतित है इस देश के भविष्य के लिए ? किसी को चिंता नहीं है कि इस देश के भविष्य के साथ कैसा खिलवाड़ किया जा रहा है ? कौन पूछेगा और किससे और कौन जवाब देगा ? अच्छा हो कि पढ़ाई के लिए विद्यालय अलग हों और केवल साक्षर करने के लिए अलग... क्योंकि साक्षर करना अलग बात है और ज्ञान प्राप्त करना बिलकुल अलग .... पता नहीं सरकार ने शिक्षा को साक्षरता से क्यों जोड़ दिया ? अब इस के दुष्परिणाम सामने आ रहे हैं, अच्छा हो कि साक्षर करने वाले विद्यालयों में ही मध्यान्ह भोजन दिया जाये और जिन्हें शिक्षा प्राप्त करनी है वे अपनी व्यवस्था स्वयं करें. इस योजना ने शिक्षकों और ग्राम प्रधानों का ऐसा गठ-जोड़ तैयार कर दिया कि जिससे निकल पाना अब मुश्किल है ऊपर से सत्ताधारी दलों के विधायक लोगों को भी बच्चों के खाने में हिस्सा चाहिए बस और कैसे क्या किया जाये कि सब ठीक हो जाये ? इतने पर भी अगर बच्चे कक्षा दो कि पुस्तकें पढ़ लेते हैं तो क्या उन्हें बधाई नहीं देनी चाहिए ?
मेरी हर धड़कन भारत के लिए है...
शिक्षा की इस भयावह दशा के पीछे कई कारण हैं:-
जवाब देंहटाएं-मास्टरी नौकरी रह गई है
-पैसे के खेल से अनुपयुक्त चुनाव
-नेता लोगों ने मास्टरों की भर्ती नोट छापने का धंधा बना लिया है
एसे ही अनेक अनगिनत कारण हैं जिन पर पूरा महाकाव्य लिखा जा सकता है. पर तुर्रा ये कि इस दशा से न तो कोई चिंतित है व न ही कोई इसे सुधारने की सोच रहा है. बस मुंह बाये ग्रांट की चिंता में बैठा है हर कोई.
उधर पूरी की पूरी पीढ़ी विनाश के कगार पर आ खड़ी हुई है.