झारखण्ड के मुख्यमंत्री शीबू सोरेन ने जिस तरह से यह कहा कि नक्सलियों के खिलाफ चलाये जा रहे अभियान ग्रीन हंट के बारे में उनसे पूछा नहीं गया अपने आप में ही बहुत बड़ा झूठ है. केंद्र सरकार पिछले कुछ समय से नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में क्षेत्रों में सख्ती करने के मूड में है उसके बारे में राज्यों के साथ बराबर विचार किया जा रहा है और राज्यों के अब तक के अनुभव के आधार पर ही इस पूरे अभियान को संचालित किया जा रहा है. खुद सोरेन कोलकाता में हुई बैठक में व्यक्तिगत कारणों का हवाला देकर शामिल नहीं हुए थे और यदि उनको इस बात की इतनी ही परवाह थी तो उन्हें अपने किसी प्रतिनिधि को इस महत्वपूर्ण बैठक में भेज कर केंद्र की बातें समझनी चाहिए थीं और अपना और राज्य का पक्ष सामने रखना था. उनके इस बर्ताव के कारण कुछ लोग इन पर नक्सलियों के प्रति अधिक नरमी बरतने का आरोप भी लगते हैं.
देश से जुड़े किसी भी मुद्दे को अपने व्यक्तिगत कारणों पर प्राथमिकता नहीं दी जा सकती है और जब समस्या ग्रस्त राज्यों की अलग से बैठक हो रही हो तब इस तरह से अपनी ढपली अलग से बजाना कहाँ तक उचित है ? जब समाधान की बात हो तब गायब रहा जाये और बाद में आरोप लगाये जाएँ ? इस तरह की राजनीति की अब देश को आवश्यकता नहीं है. अगर सोरेन के पास कुछ करने के लिए ठोस है तो वे झारखण्ड के मुख्य मंत्री हैं और उन प्रयोगों को करने के लिए स्वतंत्र हैं. हो सकता है कि उनकी बातों में दम हो पर केवल वार्ता और सहानुभूति की बातें करके क्या किसी चरमपंथी आन्दोलन की दिशा को बदला जा सकता है ? अब भी समय है कि इस तरह की बातें करने के स्थान पर कुछ ठोस कदम उठाये जाएँ. सबसे पहले यदि कहीं पर कोई निर्दोष फँस रहा है तो उसको छोड़ा जाना चाहिए क्योंकि बिना निर्दोषों को बचाए किसी भी काम में सफलता नहीं मिलने वाली है . राज्यों के पुलिस बल घातक पर मानवीय होने चाहिए पर जब सत्ता में बैठे लोग इस तरह के उपदेश देने लगते हैं तो यह समझ नहीं आता कि जब करने की ताकत उनके पास है तो फिर वे किस से क्या करने को कह रहे हैं ? खुद ही आगे बढ़कर कुछ करने का प्रयास क्यों नहीं करते हैं ?
मेरी हर धड़कन भारत के लिए है...
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