उच्चतम न्यायालय के न्यायमूर्ति कबीर अल्तमश और न्यायमूर्ति सी जोसेफ की पीठ ने अपने एक आदेश में केंद्र सरकार के कार्मिक विभाग को आईएएस की परीक्षा में सफल दृष्टि बाधित अभ्यर्थी रवि प्रकाश गुप्त को आठ हफ्ते में नियुक्ति दिए जाने को कहा है. उल्लेखनीय है कि रवि ने ३ वर्ष पहले यह प्रतिष्ठित परीक्षा उत्तीर्ण कर ली थी पर अभी तक उसे कहीं भी नियुक्त नहीं किया जा रहा था जिसके चलते उन्होंने पहले दिल्ली उच्च न्यायालय में अपील की थी जिसमें कोर्ट ने सरकार को २५००० रु० खर्च के देने के साथ नियुक्ति देने का आदेश दिया था. इस आदेश के खिलाफ़ सरकार ने सर्वोच्च न्यायालय में अपील कर दी थी जिसका निस्तारण रविप्रकाश के पक्ष में करते हुए यह मामला समाप्त कर दिया गया.
यहाँ पर सवाल यह उठता है कि जब ऐसे लोगों के लिए पदों पर आरक्षण किया जा चुका है तो क्यों उनको नियुक्ति देने में इतनी कोताही की जाती है जो काम आसानी से एक विभाग द्वारा किया जा सकता है उसके लिए भी न्यायलय के चक्कर लगाये बिना कोई बात बन ही नहीं पाती है ? आख़िर सरकारी पदों पर बैठने के बाद कहाँ हमारी संवेदना गायब हो जाती है ? क्यों हम अपने को दूसरों से इतना अलग सोचने लगते हैं ? क्यों हम नियम कानून का सही ढंग से पालन करना भूल जाते हैं ? जो काम नियम पूर्वक हो जाने चाहिए उनके लिए भी कोर्ट में भीड़ बढ़ाने
की परंपरा आखिर क्यों पड़ती जा रही है ? क्या सरकार में बैठे मंत्री और अन्य लोगों में कोई भी इतना संवेदन शील नहीं होता कि इस तरह के मामलों को नियमानुसार मानवीय आधार पर करवाने के लिए कह सके ?
एक तरफ सरकार कोर्ट में लंबित मुक़दमों कि संख्या को कम करने की कोशिश कर रही है वही दूसरी तरफ़ उसके कुछ विभाग ही अपने कार्य करने के ढंग के कारण बहुत सारे मुक़दमों के लिए ज़िम्मेदार हैं. अब भी समय है कि इस तरह के मामलों में कोई आखिरी फैसला लेने से पहले इस बात पर भी विचार किया जाये कि क्या जो काम मना किया जा रहा है उसको करने के लिए कहीं कोर्ट का आदेश तो नहीं आ जायेगा ? सरकारी विभागों को कम से मानवीय चेहरे को तो नहीं छोड़ना चाहिए क्योंकि कभी भी किसी को इस परिस्थिति से गुज़रना पड़ सकता है ?
मेरी हर धड़कन भारत के लिए है...
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