अलीगढ़ में एक बार फिर से पुलिस और प्रशासन की बर्बरता फिर से सामने आ गयी है, आखिर क्या कारण है कि हमारी प्रशासन प्रणाली आज तक यह समझ ही नहीं पायी है कि किसी तरह के जनांदोलन से किस तरह से निपटा जाये ? देश की सर्वोच्च सेवाओं में तैनात अधिकारी आख़िर कैसे इतने संवेदना शून्य हो जाते है कि उन्हें इस बात का कोई भान ही नहीं रहता है कि किस तरह से जन समस्याओं से निपटा जाये ? देश के बड़े शहरों और खास तौर से उच्च विकास संभावित क्षेत्रों में लोगों की ज़मीनों के भाव बहुत बढ़ गए हैं जिस कारण सरकारी मूल्य पर भूमि छोड़ने में उनको बहुत नुकसान होता है और साथ ही कृषि योग्य भूमि भी उनके हाथ से चली जाती है.
देश में विकास की बयार को देखते हुए कुछ मामलों पर केवल राजनीति करने के स्थान पर ठोस पहल करने की आवश्यकता है पर आज भी देश में कोई इस तरफ कुछ भी नहीं सोचना और करना चाह रहा है ? आख़िर इस तरह से कैसे और कब तक काम चलाया जायेगा ? अलीगढ़ में हो सकता है कि दोनों पक्षों की बातें सुनकर इस समस्या का हल निकाला जा सकता था पर आज अधिकांश अधिकारी केवल अपने आकाओं की चरण वंदना करके केवल अपनी अफसरी बचाने में ही लगे हुए हैं तो जनता की समस्या के बारे में सोचने की फुर्सत किसे है ? क्या देश में आज पुलिस प्रशासन और ख़ुफ़िया तंत्र कहीं बचा हुआ है ? शायद नहीं क्योंकि अलीगढ़ में जिस तरह से प्रशासन ने लोगों की भावनाओं की उपेक्षा की उसके बाद इस तरह आक्रोश होना स्वाभाविक था. ऐसा नहीं है कि एक दम से इतने लोग सड़क पर आ गए हों ? यह मामला काफी दिनों से चल रहा था पर किसी ने भी मामले को गंभीरता से नहीं लिया और जिसका नतीजा इतना ख़राब सामने आया.
अगर अन्नदाता पर इसी तरह से गोलियां चलती रहेंगें तो शांति कैसे रहेगी ? केवल राज्य और जिले के नाम बदल जाते हैं पर पुलिस प्रशासन का रवैया पूरे देश में एक जैसा ही रहता है ? कोई भी बड़ी घटना हो जाने के बाद आख़िर अधिकारियों के तबादले कर देने की नीति कहाँ तक काम कर सकती है ? जो लोग अब इस दुनिया में नहीं हैं उनका क्या ? जब प्रशासनिक ढांचे में बहुत अच्छे अधिकारी मौजूद हैं तो अच्छा काम न कर पाने वालों को आख़िर जनपदों में किस तरह से भेज दिया जाता है ? शायद किसी भी सरकार के पास इस तरह की बातों का कोई उत्तर नहीं होता तभी वे केवल बातें ही करके काम चलाने में विश्वास करती हैं ? अगर कोई सरकार जन समस्याओं को ध्यान से देखे और सही निर्णय करे तो ऐसी घटनाओं पर अंकुश लगाया जा सकता है. विपक्ष को भी ज़िम्मेदारी से काम करना चाहिए केवल विरोध के नाम पर ही विरोध नहीं होना चाहिए. सरकार को भी अपनी अक्षमता छिपाने के स्थान पर उसे खुले मन से स्वीकार कर लेना चाहिए और आगे से और सचेत रहना चाहिए पर माया सरकार विपक्ष को दादरी कि ज़मीन के अधिग्रहण और आन्दोलन के बारे में पाठ पढ़ने में लगी हुई है ? क्या फर्क पड़ता है कि किसकी सरकार है सभी को अपनी राजनैतिक रोटियां ही सेंकनी हैं.
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जिस तरह से प्रशासनिक अमले को ट्रेनिंग दी जाती है वहां तो ये बात सिखाई ही नहीं जाती कि संवेदनशीलता क्या होती है डीएम जिले का आला अधिकारी होने के साथ साथ टैक्स वसूली अधिकारी भी होता है और अनेक टैक्स वसूलने वालों के अलावा - कानूनन मालिक के प्रति वफादारी प्रमोशन व सुरक्षित नोकरी दोनों की गारंटी फिर संवेदनशीलता की जूरत किसे hogi
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