मेरी हर धड़कन भारत के लिए है...

बुधवार, 2 फ़रवरी 2011

रेलगाड़ियाँ और सुरक्षा

                                शाहजहांपुर, उ० प्र० में जिस तरह से भारत तिब्बत सीमा पुलिस की भर्ती रैली में शामिल होकर लौट रहे युवकों के साथ रोज़ा स्टेशन पर हादसा हुआ उससे तो यही लगता है कि पूरी व्यवस्था में कहीं न कहीं कुछ ऐसा ज़रूर है जो हर एक को अपनी जिम्मेदारियों से पल्ला झाड़ने का मौका दे ही देता है. यह सही है कि देश में जिस तरह से बेरोज़गारी है उसको देखते हुए कहीं से भी इस तरह से भीड़ उमड़ पड़ती है, और जब बात सेना या केंद्रीय अर्ध सैनिक बलों की हो तो बेहतर विकल्प के कारण लाखों की संख्या में युवक इसमें भाग लेते हैं. सारी समस्या बस यहीं से उठ खड़ी होती है. किसी भी तंत्र के लिए लाखों की भीड़ को संभालना बहुत मुश्किल होता है और फिर जब उनके आने जाने के लिए कोई विशेष प्रयास भी कभी भी नहीं किये जाते हैं. देश में आवागमन का मुख्य और सस्ता साधन रेल होने के कारण अभ्यर्थी इसे ही प्राथमिकता देते हैं.
                        इस मामले में जिस तरह से प्रदेश की पुलिस ने अपनी प्रतिक्रिया जताई है वह पूरी तरह से माया सरकार से मेल खाती है. केवल यह कहकर अपनी ज़िम्मेदारी से पल्ला नहीं झाड़ा जा सकता है कि भारत तिब्बत सीमा बल ने उन्हें बताये बिना ही इतनी बड़ी भर्ती आयोजित की थी ? कैसा बचकाना बचाव है कि लाखों की भीड़ बरेली जैसे शहर में थी और प्रदेश कि ख़ुफ़िया पुलिस आँखें मूंदें बैठी थी ? क्या इसी पुलिस के दम पर हम आतंकियों और देश द्रोहियों से लोहा लेने की बातें करते हैं ? ऐसे गैर ज़िम्मेदार बयान देने के लिए अधिकारियों को तुरन्त ही निलंबित किया जाना चाहिए ? क्या यहाँ पर भी माया सरकार ने सिर्फ़ इसलिए लाशों की राजनीति करना पसंद किया क्योंकि जिस बल ने इस भर्ती का आयोजन किया था वह केंद्रीय गृह मंत्रालय के आधीन आता है ?  धिक्कार है ऐसी राजनीति पर...... अगर बसपा की रैली से वापस लौट रहे लोगों में किसी के खरोंच भी आ जाती तो निलंबन के डर से यही पुलिस उनकी मलहम पट्टी करवा रही होती और लखनऊ से मुआवजे की घोषणाएं की जा रही होती ? पिछले वर्ष बसपा के सरकारी खर्च पर किये गये आयोजन के समय हर जिले में महत्वपूर्ण स्थानों पर  मोबाइल चिकित्सा दल दो दिनों तक तैनात रखे गए थे ?
                    सवाल यह है कि ये नेता और प्रशासन किस तरह से अपने को पाक साफ घोषित करने में कोई कसर नहीं छोड़ते हैं जबकि हमेशा ही आम जनता के लोग इनकी लड़ाई और नाक के चक्कर में पिस जाते हैं ? आज आवश्यकता इस बात की है कि जिनकी मौत हुई है उनके परिवार के साथ सहानुभूति पूर्वक काम किया जाए और सभी घायलों को उचित चिकित्सकीय सहायता भी दी जाए. आख़िर मरने वाले इसी प्रदेश और देश के नागरिक थे न ? पर शायद उत्तर प्रदेश में मरने से पहले इस बात का भी ध्यान रखना चाहिए कि अगर वे बसपा के वोटर नहीं हैं तो उनकी लाशों पर पूरी राजनीति किये जाने की सम्भावना है ? हो सकता है कि इन मृतकों में कोई बेचारा बसपा वोटर भी मारा गया हो और तब शायद इस सरकार के तंत्र में कुछ हरकत आ जाए ? मानवता से दूर जाने वाली सरकारी मशीनरी के साथ तो कुछ भी अच्छा नहीं है और न ही उनमें कुछ अच्छा करने की इच्छा शक्ति है ?
                 लोग रेलवे को एक बार में ही ज़िम्मेदार ठहरा देते हैं पर उसके सीमित संसाधनों में वो किसको स्टेशन पर आने से रोक दे और किसको ले जाए यह कुछ भीड़ पर ही निर्भर होता है ? हमारी रेलों में पहले से ही इतनी भीड़ रहती है, अच्छा हो कि हम नागरिक भी किसी भीड़ तंत्र का हिस्सा बनने के स्थान पर ज़िम्मेदारी से अपना काम करें क्योंकि ये सारी गड़बड़ियाँ हमारी जल्दबाजी के कारण भी फैलती हैं. इस तरह की भर्ती किये जाने की पूरी प्रक्रिया की भी समीक्षा होनी ही चाहिए और बड़े प्रदेशों में मंडल स्तर पर ही इनका आयोजन किया जाए तथा साथ ही अन्य मंडलों के लोगों को यहाँ की भर्ती में शामिल होने का अवसर भी नहीं दिया जाना चाहिए. कुछ इस तरह के कदम उठाकर ही आगे आने वाले समय में इस तरह की घटनाओं पर अंकुश लगाया जा सकेगा. पता नहीं देश के नेता कब इन मामलों के लिए संवेदन शील हो पायेंगें ?      
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