सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार की खिंचाई करते हुए कहा है कि वह केवल हिन्दुओं के कानून में ही बदलाव करती रहती है और अभी तक अल्पसंख्यकों के पर्सनल लाज में किसी भी तरह के बदलाव को नहीं किया गया है जबकि आज के समाज के हिसाब से प्रगतिशील समाज को इसमें बदलाव लाना चाहिए. कोर्ट ने राष्ट्रीय महिला आयोग की एक याचिका पर देश में शादी कि विभिन्न आयु होने पर अपनी नाराज़गी ज़ाहिर करते हुए यह टिप्पणी दी. साथ ही कोर्ट ने इस बात को भी महसूस किया कि जिस आसानी से हिन्दुओं ने इन बदलावों को हमेशा ही स्वीकार किया है उससे तो यही लगता है कि हिन्दुओं ने समय के साथ चलने का मन बना लिया है जबकि अन्य समुदाय अभी भी इसमें कोई बदलाव नहीं चाहकर पुराने समय के हिसाब से ही जीना चाहते हैं ?
कोर्ट में भी स्पष्ट कानून न होने का कारण निर्णय कैसे दिया जाये यह हमेशा से ही विवाद का विषय रहा है ? यह सही है कि देश के संविधान ने सभी को समान अवसर प्रदान किया है पर इस अवसर का फायदा उठाने वालों के लिए किसी भी तरह की सजा का कोई प्रावधान नहीं है ? वैसे जब कभी भी केवल समुदाय के अन्दर की बात हो तभी तक पर्सनल ला माना जाना चाहिए जब मसला दो धर्मों तक फ़ैल जाये तो केवल देश के संविधान को ही माना जाना चाहिए और इस मसले पर कोई मतभेद कानून में नहीं होना चाहिए
अभी तक ऐसे जो भी विवाद दिखाई दिए हैं उनमें अधिकतर मामलों में नाबालिग से शादी के मसले ही हैं क्योंकि मुस्लिम के पर्सनल ला का लाभ उठाकर कुछ लोगों ने धर्म परिवर्तन कर शादी की और फिर अपने हिसाब से रहने लगे ? इस तरह की शादियों के बारे में शरियत के अनुसार कुछ मौलानाओं ने भी आपत्ति जताई थी क्योंकि किसी भी धर्म के कुछ प्रावधानों का लाभ इस तरह से किसी को भी उठाने की अनुमति नहीं होनी चाहिए ? अब समय आ गया है की खुद मुस्लिम समाज इस बदलाव की मांग करे क्योंकि जो लोग केवल किसी लालच से धर्म बदल रहे होते हैं वे कभी भी सच्चे अनुयायी नहीं हो सकते हैं और ऐसे लोग किसी भी धर्म का भला नहीं कर सकते हैं. साथ ही सरकार को कोई कानून बनाने के स्थान अपर पहले समुदाय के लोगों और कोर्ट से विचार विमर्श करना चाहिए जिससे समाज में किसी भी नए कानून को लेकर कोई भरम न फैले और देश में मानवाधिकारों और महिलाओं के लिए और मज़बूत कानून बन सकें.
मेरी हर धड़कन भारत के लिए है...
कोर्ट में भी स्पष्ट कानून न होने का कारण निर्णय कैसे दिया जाये यह हमेशा से ही विवाद का विषय रहा है ? यह सही है कि देश के संविधान ने सभी को समान अवसर प्रदान किया है पर इस अवसर का फायदा उठाने वालों के लिए किसी भी तरह की सजा का कोई प्रावधान नहीं है ? वैसे जब कभी भी केवल समुदाय के अन्दर की बात हो तभी तक पर्सनल ला माना जाना चाहिए जब मसला दो धर्मों तक फ़ैल जाये तो केवल देश के संविधान को ही माना जाना चाहिए और इस मसले पर कोई मतभेद कानून में नहीं होना चाहिए
अभी तक ऐसे जो भी विवाद दिखाई दिए हैं उनमें अधिकतर मामलों में नाबालिग से शादी के मसले ही हैं क्योंकि मुस्लिम के पर्सनल ला का लाभ उठाकर कुछ लोगों ने धर्म परिवर्तन कर शादी की और फिर अपने हिसाब से रहने लगे ? इस तरह की शादियों के बारे में शरियत के अनुसार कुछ मौलानाओं ने भी आपत्ति जताई थी क्योंकि किसी भी धर्म के कुछ प्रावधानों का लाभ इस तरह से किसी को भी उठाने की अनुमति नहीं होनी चाहिए ? अब समय आ गया है की खुद मुस्लिम समाज इस बदलाव की मांग करे क्योंकि जो लोग केवल किसी लालच से धर्म बदल रहे होते हैं वे कभी भी सच्चे अनुयायी नहीं हो सकते हैं और ऐसे लोग किसी भी धर्म का भला नहीं कर सकते हैं. साथ ही सरकार को कोई कानून बनाने के स्थान अपर पहले समुदाय के लोगों और कोर्ट से विचार विमर्श करना चाहिए जिससे समाज में किसी भी नए कानून को लेकर कोई भरम न फैले और देश में मानवाधिकारों और महिलाओं के लिए और मज़बूत कानून बन सकें.
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आपको उम्मीद है कि एक समान कानून लागू होगा... मुझे तो नहीं लगता.
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