उत्तर प्रदेश में इस समय प्राथमिक विद्यालयों में परीक्षा फल बन रहा है पर जिस तरह से यहाँ पर परीक्षाओं का मज़ाक बनाया जा रहा है उससे यही लगता है कि प्रदेश सरकार ने यह तय कर लिया है कि यहाँ के बच्चे केवल साक्षर ही बन सकें और आगे के जीवन में वे किसी भी प्रतियोगी परीक्षा में बैठने के लायक ही न बचें. क्या कक्षा ८ तक यह संभव है कि किसी भी बच्चे को किसी भी क्लास में फेल नहीं किया जाये भले ही वह पढ़ने में कैसा भी हो ? अगर बच्चों को परीक्षा में बैठने की आदत ही नहीं होगी तो वे किस तरह से आगे आने वाले कठिन प्रतियोगी माहौल में जी पायेंगें ? फिर उन लोगों पर आरोप लगाया जाता है कि समाज के पढ़े लिखे लोग नहीं चाहते हैं कि पूरा समाज आगे बढ़े ? आख़िर क्या कारण है और किसने इस तरह का अजीब आदेश पारित किया है ? एक तरफ प्रदेश में इस बात का रोना रोया जाता है कि यहाँ के लोगों को और खास तौर से वंचितों को पढ़ाई के सामान अवसर नहीं मिलते हैं पर इस तरह से शिक्षा के नाम पर इन बच्चों को धोखा देना आख़िर किस नीति का हिस्सा है ? होना यह चाहिए कि बच्चों पर बस्ते के बोझ को कम करने का प्रयास किया जाए जिससे वे अच्छे से पढ़ सकें और साथ ही वे अपनी उम्र के हिसाब से जानकारी भी प्राप्त करते चलें. यह जानकारी ही उनके लिए आगे कड़ी प्रतियोगी परीक्षा में काम आने वाली है.
जब कक्षा ८ तक बच्चों को फ़ैल ही नहीं किया जायेगा तो आख़िर वे किस तरह से कक्षा १० के बोर्ड इम्तिहान में बैठकर अच्छे अंकों से पास हो पायेंगें ? क्या बच्चों में पढाई का कोई डर होगा और वे विद्यालय जाना भी चाहेंगें ? जिन शिक्षकों का मान पूरे गाँव में होता था आज उनकी हालत बहुत खराब है और बच्चे केवल मध्यान्ह भोजन और वजीफ़े के लिए ही विद्यालय आते हैं. जहाँ दूसरे विद्यालयों के बच्चे कक्षा ९ से ही प्रतियोगी परीक्षाओं के बारे में तैयारी करने लगते हैं वहीँ हमारे प्रदेश के बच्चे तब पहली बार किसी परीक्षा में बैठकर फेल होने की कगार पर होंगें ? कहीं क्रीमी लेयर को बचाने के लिए आरक्षण प्राप्त अधिकारियों के दिमाग में ही तो यह खुराफात नहीं आई कि गाँवों के बच्चों को इस तरह की शिक्षा शुरू से ही दी जाए जिससे वे किसी भी प्रतियोगी परीक्षा के लायक ही न बचें और उनके बच्चे आराम से जगह बनाकर आगे बढ़ते जाएँ ? जब कड़ी प्रतियोगिता करके बच्चे अधिकारी बनते हैं और चुनाव में कड़ी मेहनत करके नेता लोग पद पाते हैं तो फिर इन बच्चों से इस प्रतियोगी भाव को क्यों छीना जा रहा है ? समझ में नहीं आता है कि इस तरह के आदेश आख़िर किन परिस्थितयों में पारित कर दिए जाते हैं क्योंकि इनके दूरगामी परिणामों के बारे में सोच सकें हमारे देश के अधिकांश नेताओं में इतनी समझ कभी भी नहीं रही है ? देश की पूरी एक पीढ़ी इस तरह के आदेश में पूरी तरह से बर्बाद होने के कगार पर है.
योजना में सबसे बड़ी गड़बड़ तब से हो गयी जबसे साक्षरता और औपचारिक शिक्षा को एक साथ जोड़ दिया गया ? सरकारें यह भूल ही गयीं कि उनका उद्देश्य केवल लोगों को साक्षर करने का ही नहीं होता है देश की मेधा को और आगे बढ़ने का काम भी शिक्षण संस्थानों के माध्यम से किया जाता है ? पर आज केवल साक्षरता दर को बढ़ाने पर ही सारा ज़ोर दिया जा रहा है जबकि होना यह चाहिए था कि औपचारिक शिक्षा को पहली की तरह अलग ही रखा जाता और निरक्षर लोगों को अन्य साधनों से साक्षर बनाये जाने की कोशिशें की जाती. केवल साक्षरता का उद्देश्य पाने के लिए पूरी एक पीढ़ी के साथ पढ़ाई के नाम पर जो भद्दा मज़ाक किया गया है उसके लिए कौन जवाब देगा ? इस बीच में बच्चों की मेधा शक्ति को जिस तरह से आगे बढ़ने से रोका गया वह आख़िर किस तरह से देश के हित में होगा ? कायदे से इस तरह के तुगलकी आदेश देने में शामिल नेताओं और अधिकारियों के विरुद्ध इन बच्चों के भविष्य से खिलवाड़ करने के आरोप में मुक़दमा चलाया जाना चाहिए और उन्हें कड़ी सजा भी देनी चाहिए जिससे देश के बच्चों से आगे कोई भी खिलवाड़ न कर सके. और जिन बच्चों को केवल पास किया गया है उनके भविष्य के बारे में सोचना शुरू करना चाहिए. वाह रे सरकार जिस पर कुछ करने का ज़िम्मा जनता ने दाल रखा है वही जनता को काटने पर लगी हुई हैं ?
मेरी हर धड़कन भारत के लिए है...
जब कक्षा ८ तक बच्चों को फ़ैल ही नहीं किया जायेगा तो आख़िर वे किस तरह से कक्षा १० के बोर्ड इम्तिहान में बैठकर अच्छे अंकों से पास हो पायेंगें ? क्या बच्चों में पढाई का कोई डर होगा और वे विद्यालय जाना भी चाहेंगें ? जिन शिक्षकों का मान पूरे गाँव में होता था आज उनकी हालत बहुत खराब है और बच्चे केवल मध्यान्ह भोजन और वजीफ़े के लिए ही विद्यालय आते हैं. जहाँ दूसरे विद्यालयों के बच्चे कक्षा ९ से ही प्रतियोगी परीक्षाओं के बारे में तैयारी करने लगते हैं वहीँ हमारे प्रदेश के बच्चे तब पहली बार किसी परीक्षा में बैठकर फेल होने की कगार पर होंगें ? कहीं क्रीमी लेयर को बचाने के लिए आरक्षण प्राप्त अधिकारियों के दिमाग में ही तो यह खुराफात नहीं आई कि गाँवों के बच्चों को इस तरह की शिक्षा शुरू से ही दी जाए जिससे वे किसी भी प्रतियोगी परीक्षा के लायक ही न बचें और उनके बच्चे आराम से जगह बनाकर आगे बढ़ते जाएँ ? जब कड़ी प्रतियोगिता करके बच्चे अधिकारी बनते हैं और चुनाव में कड़ी मेहनत करके नेता लोग पद पाते हैं तो फिर इन बच्चों से इस प्रतियोगी भाव को क्यों छीना जा रहा है ? समझ में नहीं आता है कि इस तरह के आदेश आख़िर किन परिस्थितयों में पारित कर दिए जाते हैं क्योंकि इनके दूरगामी परिणामों के बारे में सोच सकें हमारे देश के अधिकांश नेताओं में इतनी समझ कभी भी नहीं रही है ? देश की पूरी एक पीढ़ी इस तरह के आदेश में पूरी तरह से बर्बाद होने के कगार पर है.
योजना में सबसे बड़ी गड़बड़ तब से हो गयी जबसे साक्षरता और औपचारिक शिक्षा को एक साथ जोड़ दिया गया ? सरकारें यह भूल ही गयीं कि उनका उद्देश्य केवल लोगों को साक्षर करने का ही नहीं होता है देश की मेधा को और आगे बढ़ने का काम भी शिक्षण संस्थानों के माध्यम से किया जाता है ? पर आज केवल साक्षरता दर को बढ़ाने पर ही सारा ज़ोर दिया जा रहा है जबकि होना यह चाहिए था कि औपचारिक शिक्षा को पहली की तरह अलग ही रखा जाता और निरक्षर लोगों को अन्य साधनों से साक्षर बनाये जाने की कोशिशें की जाती. केवल साक्षरता का उद्देश्य पाने के लिए पूरी एक पीढ़ी के साथ पढ़ाई के नाम पर जो भद्दा मज़ाक किया गया है उसके लिए कौन जवाब देगा ? इस बीच में बच्चों की मेधा शक्ति को जिस तरह से आगे बढ़ने से रोका गया वह आख़िर किस तरह से देश के हित में होगा ? कायदे से इस तरह के तुगलकी आदेश देने में शामिल नेताओं और अधिकारियों के विरुद्ध इन बच्चों के भविष्य से खिलवाड़ करने के आरोप में मुक़दमा चलाया जाना चाहिए और उन्हें कड़ी सजा भी देनी चाहिए जिससे देश के बच्चों से आगे कोई भी खिलवाड़ न कर सके. और जिन बच्चों को केवल पास किया गया है उनके भविष्य के बारे में सोचना शुरू करना चाहिए. वाह रे सरकार जिस पर कुछ करने का ज़िम्मा जनता ने दाल रखा है वही जनता को काटने पर लगी हुई हैं ?
मेरी हर धड़कन भारत के लिए है...
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें