एक बार फिर से जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्लाह ने कश्मीरी पंडितों के आह्वाहन करते हुए कहा है कि घाटी में तेज़ी से बदलते माहौल के बीच अब उनकी वापसी संभव है और कश्मीरी पंडितों को भी इस बात पर गंभीरता से विचार करना चाहिए. वैसे पिछले कुछ समय से जम्मू कश्मीर सरकार ने कश्मीरी पंडितों के लिए विशेष योजनाओं की घोषणाएं की है पर अभी भी जिस तरह के अविश्वास का माहौल वहां पर बना हुआ है तो कोई भी बड़े पैमाने पर वहां जाने के लिए राज़ी नहीं है. कश्मीर को लेकर हमेशा से ही बड़ी बड़ी बातें की जाती है और कहा जाता है कि भारत ने वहां के लोगों पर अत्याचार कर रखे हैं पर इस बात को कोई भी नहीं कहना चाहता है कि कश्मीरी पंडितों को एक योजना के तहत घाटी से भगाए जाते समय वहां के अमन पसंद लोग आख़िर क्या कर रहे थे ? कहने में ऐसी बातें बहुत अच्छी लगती है पर केवल इस्लाम के नाम पर पूरी दुनिया में दूसरे धर्मों पर अत्याचार और भेद भाव करने की घटनाएँ आज भी लगातार होती जा रही हैं.
कश्मीरी पंडित जैसा शांति प्रिय समुदाय पूरी दुनिया में कहीं भी देखने के नहीं मिलेगा पर कश्मीर के कुछ लोगों ने आम लोगों के आख़िर किस तरह से यह समझा दिया कि घाटी से पंडितों का सफाया ही कर दिया जाए ? और क्या कश्मीर के लोगों दिमाग़ी स्तर इतना ख़राब है कि वे चुपचाप यह सब देखते रहे ? जिनके साथ उनका सदियों का नाता था और जिनके पूर्वज उनके भी पूर्वज थे उनके साथ आख़िर भाई चारा फ़ैलाने वाले धर्म इस्लाम के नाम पर किस तरह से यह अत्याचार किया गया ? आज कभी केवल कुछ कश्मीरियों को ही यह लगता है कि आम पंडितों को वहां वापस बुलाया जाना चाहिए और ज़्यादातर ऐसे किसी भी अभियान के ख़िलाफ़ हैं तो ऐसे में कौन वहां जाकर अपनी जान ज़ोखिम में डालना चाहेगा ? आज के समय में कश्मीर में की जाने वाली भाई चारे की कोई भी बात बहुत ही खोखली सी लगती है और किसी को उस पर भरोसा नहीं होता है. कश्मीर के पंडित एक ऐसा समुदाय हो गए हैं जो बिना किसी ग़लती के ही अपने घर से बेघर हो गए हैं. उहोने शायद अपनी शांतिप्रियता के कारण ही यह दिन भी देखे हैं कि सब कुछ होते हुए भी वे सड़क पर हैं.
आज अगर उमर यह कहने के लिए बचे हुए हैं तो वह केवल भारतीय सेनाओं और सुरक्षा बलों के कारण ही संभव हो सका है क्योंकि पिछले वर्ष घाटी से सेना की वापसी की मांग करने वालों में उमर भी शामिल थे पर भारत सरकार ने दूरगामी परिणामों पर विचार करके इस तरह की किसी भी बड़ी कटौती को नामंज़ूर कर दिया था. पहले कश्मीर की सरकार और घाटी के मुसलमानों को वहां पर जीने लायक माहौल बनाना होगा जिससे वहा से मजबूरी में पलायन कर चुके कश्मीरी पंडित वापस जाकर अपनी संपत्ति का हाल चाल ले सकें. सरकार को वक्फ़ की ज़मीन की तर्ज़ पर किसी भी कश्मीरी पंडित की ज़मीन को किसी अन्य को बेचने पर पाबन्दी लगाकर उनकी संपत्ति की रक्षा भी करनी चाहिए. कश्मीरी पंडितों की जो ज़मीनें १९८९ के स्तर पर थीं उनको वैसे ही बहाल किया जाए और बीच में किये गए सारे सौदे रद्द किये जाएँ. केवल माहौल अच्छा बताकर कश्मीरी पंडितों को वहां बुलाने से कुछ भी नहीं होगा. पूरी घाटी के लोगों के इस बात के लिए अब प्रायश्चित करना होगा तभी उनके पूर्व में किये गए पाप कम हो सकेंगें.
मेरी हर धड़कन भारत के लिए है...
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जवाब देंहटाएं"कश्मीरी पंडितों को एक योजना के तहत घाटी से भगाए जाते समय वहां के अमन पसंद लोग आख़िर क्या कर रहे थे ?"
जवाब देंहटाएं"इस्लाम के नाम पर पूरी दुनिया में दूसरे धर्मों पर अत्याचार और भेद भाव करने की घटनाएँ आज भी लगातार होती जा रही हैं."
और आप अभी भी बड़े आशावादी हैं...
मेरा मिशन आशा और अनुशासन का मिशन है। लोग बेहतरी की आशा में ही अनुशासन भंग करते हैं और जो लोग अनुशासन भंग करने से बचते हैं, वे भी बेहतरी की आशा में ही ऐसा करते हैं। समाज में चोर, कंजूस, कालाबाज़ारी और ड्रग्स का धंधा करने वाले भी पाए जाते हैं और इसी समाज में सच्चे सिपाही, दानी और निःस्वार्थ सेवा करने वाले भी रहते हैं। हरेक अपने काम से उन्नति की आशा करता है। जो ज़ुल्म कर रहा है वह भी अपनी बेहतरी के लिए ही ऐसा कर रहा है और जो ज़ुल्म का विरोध कर रहा है वह भी अपनी और सबकी बेहतरी के लिए ही ऐसा कर रहा है।
जवाब देंहटाएंऐसा क्यों है ?
ऐसा इसलिए है कि मनुष्य सोचने और करने के लिए प्राकृतिक रूप से आज़ाद है। वह कुछ भी सोच सकता है और वह कुछ भी कर सकता है। दुनिया में किसी को भी उसके अच्छे-बुरे कामों का पूरा बदला मिलता नहीं है। क़ानून सभी मुजरिमों को उचित सज़ा दे नहीं पाता बल्कि कई बार तो बेक़ुसूर भी सज़ा पा जाते हैं। ये चीज़ें हमारे सामने हैं। हमारे मन में न्याय की आशा भी है और यह सबके मन में है लेकिन यह न्याय मिलेगा कब और देगा कौन और कहां ?
न्याय हमारे स्वभाव की मांग है। इसे पूरा होना ही चाहिए। अगर यह नज़र आने वाली दुनिया में नहीं मिल रहा है तो फिर इसे नज़र से परे कहीं और मिलना ही चाहिए। यह एक तार्किक बात है।
हमें वह काम करना चाहिए जिससे समाज में ‘न्याय की आशा‘ समाप्त न होने पाए। ऐसी मेरी विनम्र विनती है विशेषकर आप जैसे विद्वानों से।
मान्यताएं कितनी भी अलग क्यों न हों ?
हमें समाज पर पड़ने वाले उनके प्रभावों का आकलन ज़रूर करना चाहिए और देखना चाहिए कि यह मान्यता समाज में आशा और अनुशासन , शांति और संतुलन लाने में कितनी सहायक है ?
इसे अपनाने के बाद हमारे देश और हमारे विश्व के लोगों का जीना आसान होगा या कि दुष्कर ?
इसके बावजूद भी मत-भिन्नता रहे तो भी हमें अपने-अपने निष्कर्ष के अनुसार समाज में शांति और व्यवस्था बनाए रखने के लिए यथासंभव कोशिश करनी चाहिए और इस काम में दूसरों से आगे बढ़ने की कोशिश करनी चाहिए।
निम्न लेख भी विषय से संबंधित है और आपकी तवज्जो का तलबगार है :
http://ahsaskiparten.blogspot.com/2011/06/dr-anwer-jamal_8784.html