मेरी हर धड़कन भारत के लिए है...

सोमवार, 13 जून 2011

आन्दोलन की राजनीति

   अपनी अपनी ढपली और अपना अपना राग..... देश में चल रहे भ्रष्टाचार विरोधी अभियानों में कुछ ऐसा ही दिखाई देने लगा है जिससे इस आन्दोलन की धार कुछ कम हो जाएगी और आने वाले समय में भ्रष्ट नेताओं को देश को लूटने के लिए कुछ और समय भी मिल जायेगा. अन्ना हजारे जैसे गाँधीवादी व्यक्ति के आन्दोलन से सरकार पर कुछ हद तक दबाव बना जिसके बाद सरकार ने भी लोकपाल बिल पर तेज़ी सकाम करने का मन बना लिया. अन्ना को मिले समर्थन के बारे में विचार करके ही बाबा रामदेव ने भी अपने को इस आन्दोलन में आगे करने के मकसद से दिल्ली के रामलीला मैदान पर अनशन शुरू किया. यह सही है कि योग गुरु ने भ्रष्टाचार के मुद्दे पर देश में अलख सी जगाई है अपर जिस तरह से उन्होंने सोचा था कि पूरा देश एकदम से उनके साथ आ जायेगा वैसा कुछ भी नहीं हुआ बल्कि इसी तरह के आन्दोलन के पुरोधा अन्ना ने भी बाबा से दूरी बना ली. बाबा से कहीं न कहीं इस पूरे मामले के राजनैतिक आंकलन में भारी भूल हो गयी जिस कारण से उन्हें यह दिन देखना पड़ा.
      अन्ना का काम केवल व्यवस्था में परिवर्तन लाने के लिए ही हमेशा से होता रहा है क्योंकि उनके अन्दर गाँधी जी के विचार चलते रहते हैं पर बाबा ने जिस आक्रामकता के साथ अपने आन्दोलन को चलाया और बीच में ही उन्हें यह समझ में नहीं आया कि सरकार ने मांगें मान ली हैं तो फिर जिस बात के लिए अनशन चलाया जा रहा है उसे कैसे समाप्त किया जाये ? बाबा के मंच पर जिस तरह से भाजपा के लोगों का जमावड़ा हुआ उसने भी बाबा के प्रति देश कि सहानुभूति को कम कर दिया. देश का दुर्भाग्य ही कहा जायेगा कि जिन लोगों को जहाँ होना चाहिए वे वहां पर न होकर दूसरे स्थानों पर दिखाई देते हैं. अन्ना का आन्दोलन स्वतः स्फूर्त था तो बाबा का पूरी तरह से प्रायोजित आन्दोलन. देश की जनता जब घाघ नेताओं की मंशा को भांप ली है तो वह बाबा के मन की कैसे नहीं जान पाती बस इसीलिए बाबा के साथ इस तरह से अन्याय होने पर भी देश में कुछ बहुत बड़ा नहीं हुआ. सार्वजनिक जीवन में अपने को बहुत ऊंचे आदर्शों के साथ प्रस्तुत करना होता है तभी जाकर सब ठीक हो पाता है. अन्ना ने यह सब बहुत दिनों की मेहनत के बाद हासिल किया है और उसे  बाबा कुछ दिनों में ही हासिल करना चाहते हैं. 
     केवल शिक्षा देने में कोई किसी भी तरह से दे सकता है पर जब किसी को समझाने और सार्वजनिक जीवन में लोगों के सामने अपने को साबित करने की बात होती है तो बहुत सामंजस्य की आवश्यकता होती है. इस पूरे प्रकरण में देश हार गया कोई अन्ना या रामदेव नहीं जीते बल्कि इस तरह के आयोजनों से देश के संसाधनों को लूटने वालों को और समय मिल गया ? इस बात का जवाब कौन देगा कि जब सरकार बहुत कुछ करने को राज़ी थी तब भी बाबा ने उसकी बात पर सहमति क्यों नहीं दिखाई ? और अब सरकार ख़ुद यह कह रही है कि जब उसने काले धन पर बाबा की बातें मान ली हैं तो फिर वे क्यों इस तरह के अनशन के लिए जिद पकड़े हुए थे ? आज आवश्यकता है कि इस मुद्दे पर जो लोग सरकार से बात कर रहे हैं वे करते रहें और सिविल सोसाइटी के लोगों को लोकपाल बिल बनाने के लिए नियमित बैठकों में जाना चाहिए क्योंकि सरकार ने स्पष्ट कर दिया है कि ३० जून तक वो ड्राफ्ट बना लेगी अब यह हम पर है कि हम अपनी बात वहां रखने जाते हैं या नहीं ?      
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