मेरी हर धड़कन भारत के लिए है...

सोमवार, 4 जुलाई 2011

संविधान और सिविल सोसायटी

    दिल्ली में लोकपाल बिल को लेकर हुई सर्वदलीय बैठक में एक बात तो स्पष्ट ही हो गई कि केवल वोट पाने के लिए राजनीति करने और संविधान के अनुसार काम करने में बहुत बड़ा अंतर होता है तभी तो जिस बात को लेकर सभी विरोधी पार्टियाँ अभी तक हल्ला मचाने में लगी हुई थीं इस बैठक में आकर उनके सुर अपने आप ही बदल से गए थे. विपक्षी दलों ने सरकार पर स्थापित संवैधानिक मूल्यों से हटने का आरोप भी लगाया जब कि यही दल अन्ना के अनशन के समय यह कहने से नहीं चूक रहे थे कि सरकार कड़े लोकपाल बिल से दूर भाग रही है क्योंकि उसके मंत्री भ्रष्टाचार में लगे हुए हैं ? पर जब बात संविधान के अनुसार चलने की होती है तो कोई भी बोल नहीं पाता है जबकि सरकार ने अन्ना के अनशन से लेकर आज तक यही कहा है कि यह बिल अपने आप में सम्पूर्ण बनाने के प्रयास किये जा रहे हैं और समय के अनुसार इसमें भी संशोधन किये जाने की सम्भावना हमेशा ही रहेगी. अन्ना के व्यक्तित्व को देखते हुए अगर सरकार ने उनसे बात कर ली तो इसमें कुछ भी बुरा नहीं है.
      देश एक स्थापित संवैधानिक परंपरा के अनुसार ही चलता है और इसमें किसी भी राजनैतिक दल के चाहने से कोई बदलाव नहीं किया जा सकता है तभी सरकार शुरू से ही यह कहती रही है कि वह सिविल सोसायटी के साथ बात करने के बाद ही यह तय करने की स्थिति में होगी कि किस तरह का ड्राफ्ट लोकसभा में रखा जाये. जब यही बात अभी तक सरकार कहती थी तो भाजपा आरोप लगाने से नहीं चूकती थी कि सरकार की मंशा साफ़ नहीं है और आज जब सर्वदलीय बैठक हो रही है तो सभी सरकार के सिविल सोसायटी से बात करने पर ही प्रश्नचिन्ह लगा रहे हैं ? सरकार में बिठकर संविधान का अनुपालन करना अधिक कठिन है और विपक्ष में रहकर चंद वोटों के लालच में कुछ भी बोलते रहना बहुत आसान है. सभी दलों में इस बात पर भी कोई सहमति नहीं बन सकी कि पीएम को भी इसके दायरे में लाया जाये जबकि सभी आज तक यही कहते रहे हैं कि देश से बड़ा कोई भी नहीं है और सभी को इसमें लाया जाना चाहिए ?
    इस बैठक के बाद अन्ना हजारे को भी यह समझना चाहिए कि सरकार जिस प्रक्रिया से चल रही है वह सही है भले ही वह दबाव में काम कर रही हो या नहीं पर कोई भी सरकार इससे अधिक किसी भी स्तर पर कोई बात नहीं कर सकती है ? यह भी सही है कि भ्रष्टाचार के मुद्दे पर सभी दल एक जैसा व्यवहार करते है क्योंकि चुनाव लड़ने में होने वाले खर्चों को पूरा करने के लिए उन्हें भी धन की आवश्यकता होती है कोई भी दल इस स्थिति में नहीं है कि वह पूरी तरह से  ईमानदार होने का दावा कर सके ? फिर भी एक स्थिति के बाद सभी परिस्थितियों का लाभ उठाने लगते हैं और उनकी नैतिकता पता नहीं कहाँ खो सी जाती है ? आज आवश्यकता है कि सभी लोग मिलकर इस मसले पर जनता की राय भी मांगें क्योंकि हो सकता है कि कहीं से कोई ऐसी बात भी सामने आ जाये जो देश के हित में हो और अभी तक उस पर ध्यान नहीं दिया जा रहा हो ? इस पूरे मसले में कोई भी हड़बड़ी करने की आवश्यकता बिलकुल भी नहीं है क्योंकि देश को एक मज़बूत लोकपाल की आवश्यकता तो है ही....       
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