मेरी हर धड़कन भारत के लिए है...

गुरुवार, 14 जुलाई 2011

मुंबई आख़िर कब तक ?

देश की आर्थिक राजधानी पर एक बार फिर से आतंकी हमले ने यह बात साबित ही कर दी है कि चाहे जो हो जाये पर पाक किसी भी दबाव में आये बिना अपनी हरकतों को चालू रखने पर आमादा है. यह भी सही है कि विकास करता हुआ भारत पाक की आँखों में हमेशा ही खटकता रहता है पर इसका मतलब यह तो नहीं होना चाहिए कि भारत में हम सब अपनी सुरक्षा में केवल उसी समय पूरी चौकसी रखें जब हमारे पर कोई आतंकी हमला हो जाये ? इस तरह के आतंकी हमलों को किसी भी स्थिति में रोका नहीं जा सकता है परन्तु हमारे चौकस रहने से आतंकियों को इस तरह की घटनाओं को अंजाम देने में अधिक सावधानी और परिश्रम की आवश्यकता पड़ेगी जिससे वे लगातार दबाव में रहकर गलतियाँ भी करेंगें. यह सही है कि २६/११ के बाद से केद्र सरकार ने कुछ प्रतिरोधात्मक कदम उठाये थे उनका इस हमले को रोकने में क्या हाथ रहा यह तो कोई नहीं बता सकता है पर जब भी इस तरह की घटनाएँ होती हैं तो सरकारें अचानक ही दबाव में आ जाया करती हैं. आज पाकिस्तान को कोसने के स्थान पर हमें इस बात पर विचार करना होगा कि आख़िर कैसे हम अपने को और सुरक्षित बना सकते हैं ?
    आतंक से निपटने के लिए देश को एक बहुत सख्त कानून की आवश्यकता है और इसमें किसी भी तरह की राजनीति आख़िर में देश के लिए ही विनाशकारी साबित होने वाली है इसलिए आतंकी घटनाओं की एक समय बद्ध तरीके से वैज्ञानिक जांच करने की दिशा में हमें अब बढ़ना ही होगा क्योंकि जब तक हमारे पास इस तरह की टीम नहीं होगी कि वह पूरी जाँच को सही तरीके से कर सके और एक बेहद कड़े कानून के तहत दोषियों को सजा भी दिलवा सके तब तक देश में इस तरह के आतंकी हमले रोकने की कोई भी कवायद बेकार ही साबित होने वाली है. आतंक निरोधी कानून पर जिस तरह से राजनैतिक दल अपने वोट बैंक को बचाने की कोशिशें करते नज़र आते हैं वह बेहद घटिया है क्योंकि आतंकियों की गोली और बम किसी की जाति और धर्म नहीं पूछते हैं उन्हें तो केवल खून और दहशत से मतलब होता है अब वह चाहे किसी का भी क्यों न हो ? फिर भी आज तक देश में एक कड़ा कानून सर्व सम्मति से नहीं बन सका है हाँ सांसदों के वेतन भत्ते और निधि को बढ़ाने की की हर बार सफल कोशिश अवश्य होती रही है. संसद निधि से हर वर्ष १ करोड़ रु० स्थानीय सुरक्षा के नाम पर आरक्षित कर दिए जाने चाहिए जिससे कुछ वर्षों में धन की जो कमी सुरक्षा में महसूस होती है उसमें कुछ इज़ाफ़ा हो सके. इस तरह के विकास का कोई मतलब नहीं है जब देश के हर विकास और पूरे तंत्र पर आतंक का खतरा मंडरा रहा हो ?
     अब समय आ गया है कि हम भी इस बारे में पूरी तरह से चेत जाएँ क्योंकि इस तरह की घटनाओं को हम नागरिक ही कुछ हद तक कम कर सकते हैं पर आज हमारे पर अपने घरों में ही झाँकने की फुर्सत नहीं है तो हम अपने मोहल्ले के बारे में क्या सोच पायेंगें ? ऐसे किसी भी स्थान पर बम रखने के लिए आतंकियों को कई बार चक्कर लगाने पड़ते हैं और इस पूरी कवायद में हमारी सोती हुई लापरवाह आँखें उन्हें देख ही नहीं पाती हैं. यह भी सही है कि इन सभी में कोई न कोई स्थानीय निवासी भी शामिल होता है पर अगर हम अपने आस पास की गतिविधियों पर कुछ नज़र रखने की आदत बना लें तो हो सकता है कि कई बार कोई संदिग्ध हमारी नज़रों में आ ही जाये ? अब हम नागरिकों को अपने स्तर से अपने मोहल्ले में आने जाने वालों पर ध्यान रखना सीखना होगा और भीड़ भरे बाज़ारों में दुकानदारों को इस बात का प्रयास करना चाहिए कि वे अपने खर्चों से सड़कों पर नज़र रखने के लिए कुछ व्यवस्था करें जिससे ऐसी किसी घटना के बाद पुलिस को कुछ सुराग भी मिल सकें और आतंकियों को हमले करने में परेशानी होने लगे. अब हर बात के लिए सरकारों का मुंह ताकने के स्थान पर हमें अपनी सुरक्षा के लिए ख़ुद भी कुछ करना ही होगा. 
मेरी हर धड़कन भारत के लिए है...

2 टिप्‍पणियां:

  1. सहमत है आपसे एक कड़े कानून की ज़रूरत है ......मगर सरकार को बमों की आवाज क्यों नही आती ?

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  2. देश के दुश्मनों के लिए काम करने वाले ग़द्दारों को चुन चुन कर ढूंढने की ज़रूरत है और उन्हें सरेआम चैराहे पर फांसी दे दी जाए। चुन चुन कर ढूंढना इसलिए ज़रूरी है कि आज ये हरेक वर्ग में मौजूद हैं। इनका नाम और संस्कृति कुछ भी हो सकती है, ये किसी भी प्रतिष्ठित परिवार के सदस्य हो सकते हैं। पिछले दिनों ऐसे कई आतंकवादी भी पकड़े गए हैं जो ख़ुद को राष्ट्रवादी बताते हैं और देश की जनता का धार्मिक और राजनैतिक मार्गदर्शन भी कर रहे थे। सक्रिय आतंकवादियों के अलावा एक बड़ी तादाद उन लोगों की है जो कि उन्हें मदद मुहैया कराते हैं। मदद मदद मुहैया कराने वालों में वे लोग भी हैं जिन पर ग़द्दारी का शक आम तौर पर नहीं किया जाता।
    ‘लिमटी खरे‘ का लेख इसी संगीन सूरते-हाल की तरफ़ एक हल्का सा इशारा कर रहा है.
    ग़द्दारों से पट गया हिंदुस्तान Ghaddar

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