लगता है कि भाजपा ने अपनी पार्टी के अन्दर बढ़ते हुए असंतोष को सँभालने के लिए कुछ ठोस योजना नहीं बना रखी है जिसके कारण राज्यों में बनने वाली उसकी सरकारें गुजरात को छोड़कर कहीं भी स्थिर नहीं रह पाती हैं जहाँ पर उसे भले ही स्पष्ट बहुमत भी मिला हुआ हो ? सबसे बड़ी बात यह है कि क्षेत्रीय नेताओं को बढ़ाने के चक्कर में पार्टी कई बार यह तय ही नहीं कर पाती है कि उसे किस तरह से और कब क्या कदम उठाने चाहिए इस पूरे मसले में उसका गंभीर सरकारें बनाने और चलाने का मंसूबा हमेशा ही गड़बड़ाता रहता है. आज जिस तरह से कर्नाटक में येदुरप्पा केंद्रीय नेतृत्व के ख़िलाफ़ अपने झंडे उठाये खड़े हैं उससे यही लगता है कि भाजपा ने अपनी गलतियों से कोई भी सबक नहीं सीखा है. जिस आसानी से येदुरप्पा ने इस्तीफ़ा देने की बात कही थी अब भाजपा के नेतृत्व को पता चल गया है कि वह इतनी आसानी से नहीं मिलने वाला है और हो सकता है कि वह कर्नाटक में भी भाजपा को उत्तर प्रदेश की तरह किसी बड़े संकट में भी पहुंचा दे जिससे आने वाले कई चनावों में वह सरकार बनाने की स्थिति में भी न रहे.
ऐसा नहीं है कि भाजपा की इस नीति में कोई ख़ामी है कि राज्य स्तर पर कोई मज़बूत नेतृत्व भी होना चाहिए पर आज तक क्षेत्रीय नेताओं ने ही अपने को दिल्ली के नेतृत्व से ऊपर माना जिस कारण से पार्टी हमेशा ही संकट में घिरती रही है. उत्तर प्रदेश में कल्याण सिंह, मध्य प्रदेश में उमा भारती, दिल्ली में मदन लाल खुराना और उत्तराँचल में खंडूड़ी के समय में जो कुछ भी हुआ उसे और क्या कहा जा सकता है ? हर बार जनता की पसंद के चुने हुए नेताओं को किसी न किसी कारण से जाना पड़ा और उसका खामियाज़ा पार्टी ने हमेशा ही चुकाया. अभी तक बाकी मामलों में जहाँ व्यक्तिगत अनबन ने भाजपा को गड्ढे में धकेला वहीं कर्नाटक में आज भ्रष्टाचार के आरोपों ने येदुरप्पा के लिए मुसीबतें खड़ी कर दी हैं. यह सही है कि दक्षिण में भाजपा की सरकार बनवाने में येदुरप्पा ने जिस तरह से मेहनत की उसके बाद से उनका इस तरह से विदा होना पार्टी के स्थानीय नेताओं और उनके समर्थकों को रास नहीं आ रहा है और आज के समय में अगर केंद्रीय नेतृत्व को कुछ नहीं सूझ रहा तो उसके पीछे भी येदुरप्पा कि मज़बूती ही है.
किसी भी राज्य में सरकार बनाने तक जो संघर्ष किसी भी नेता को करना पड़ता है वह किसी से भी छिपा नहीं है पर कर्नाटक के मुद्दे में सरकार के कुछ फैसलों से १६ हज़ार करोड़ रुपयों के राजस्व की हानि के कारण अब यह मुद्दा किसी भी तरह से शांत होने वाला नहीं है. आज देश में कोई भी घोटाला हजारों करोड़ों से नीचे का होता ही नहीं है. बोफोर्स में ६४ करोड़ की कथित दलाली के कारण भाजपा ने संसद को बंधक बना लिया था पर अब उसे भी पता है कि इस स्थिति में उसे संसद में कितनी असहज स्थिति का सामना करना पड़ेगा बस इसी लिए बस किसी तरह से वहां पर चेहरा बचाने की पूरी कोशिश की जा रही है जिससे २ जी और राष्ट्र मंडल घोटाले पर संसद में यूपीए को घेरकर कुछ किया जा सके. आज के दिन देश की दोनों प्रमुख पार्टियाँ अपने नेताओं के स्वार्थी हितों के चलते भ्रष्टाचार के आरोपों का सामना कर रही हैं और दोनों ही बोलने की स्थिति में नहीं है अब देश के लिए इसे क्या कहा जाए कि जिन पर कुछ करने और दबाव बनाने की ज़िम्मेदारी है वे भी सत्ता पक्ष की तरह उन्हीं आरोपों से घिरे हुए हैं.
मेरी हर धड़कन भारत के लिए है...
पार्टी कोई भी हो, भ्रष्ट ही है । चोर चोर मौसेर भाई ।
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