जिस तरह से २ जी स्पेक्ट्रम घोटाले में रोज़ ही नयी बातें सामने आती जा रही हैं उनसे यही लगता है कि राजस्व से जुड़े इतने बड़े मसले को वर्तमान सरकार के साथ पिछली कई सरकारों ने बहुत हलके से लिया जिस कारण से देश को बहुत अधिक राजस्व नुकसान हुआ. वह समय याद कीजिए जब देश में किसी भी स्थान पर बात करने के लिए पूरा दिन लग जाता था और बात होने की सम्भावना भी ५०% ही रहा करती थी तो उस समय जनता को जब एक बार में ही बात करने की सुविधा मिलने लगी तो उसे अन्य बातों से कोई मतलब नहीं रह गया फिर मोबाइल आने के बाद से तो सभी ने यह मान लिया कि अब देश ने संचार के क्षेत्र में एक बहुत बड़ी छलांग लगा ली है. हो सकता है कि उस समय नीतियां बनाने वालों ने यह नहीं सोचा होगा कि इस मद से इतना बड़ा राजस्व आ सकता है इसलिए उन्होंने नीतियां बनाने में कुछ नरमी बरती हो पर आज यह नहीं कहा जा सकता है कि वह नरमी थी या निजी कम्पनियों को जान बूझकर लाभ पहुँचाने का षड़यंत्र ?
आज जिस तरह से स्पेक्ट्रम विवाद की आंच हर राजनैतिक दल को झुलसा रही है उससे तो यही लगता है कि कुछ ने इसमें अपने हितों को साधा और कुछ तो बिना बात के ही आरोपी बन गए हैं क्योंकि उस समय जो भी निर्णय लिए गए थे उसमें उनकी सामूहिक भूमिका थी. इन सभी बातों पर गंभीरता से विचार करने के बाद सरकार को होने वाले राजस्व नुकसान का आंकलन किया जाना चाहिए और आज के समय उसे उन कम्पनियों से चरण बद्ध तरीके से वसूल किया जाना चाहिए क्योंकि कहीं न कहीं से जो भी नुकसान हुआ है अब उसकी भरपाई होनी चाहिए. देश को हुए राजस्व से जुड़े मसलों को इस तरह से नहीं छोड़ा जा सकता और आज के समय में १९९८ में बनायीं गयी नीतियों को लेकर बिना बात की बहस भी नहीं होनी चाहिए क्योंकि समय के साथ ही ज़रूरतें बदलती जाती हैं अब केवल नेताओं पर भरोसा करने के स्थान पर इस तरह के मामलों में देश के विशेषज्ञों को शामिल करने का प्रयास होना चाहिए जिससे आने वाले समय में इस तरह की घटनाओं को रोका जा सके. साथ ही किसी भी कम्पनी से जुड़े व्यक्ति की राय को लग से सुना जाये और समिति अपनी राय अलग से दे जिससे सही स्थिति का पता चल सके.
पूरा मामला चूंकि सर्वोच्च न्यायालय के सामने विचाराधीन है इसलिए वहीं पर नेताओं और अधिकारियों द्वारा की गयी गलतियों के बारे में फैसला होगा फिर भी आगे से केवल चंद अनुभवहीन मंत्रियों के समूह के स्थान पर अब विशेषज्ञों की राय लेने की भी परंपरा बनायीं जानी चाहिए क्योंकि कोई बहुत अच्छा मंत्री तो हो सकता है पर वह हर क्षेत्र की तकनीकी बारीकियों को भी समझता ही हो यह पूरी तरह से संभव नहीं है ? जिस तरह से प्रधानमंत्री ने भी इस बात के सन्दर्भ में बयान दिया है कि तत्कालीन मंत्री ने भी इस बात को कहा था कि मंत्रियों का समूह इस तकनीकी मुद्दे को सुलझा नहीं सकता है तो उनसे यह गलती तो हुई है कि उन्हें इस मामले की गंभीरता को समझते हुए एक विशेषज्ञों की समिति गठित करने के बारे में अपनी राय तो देनी ही चाहिए थी. आज मनमोहन सिंह के सामने जो स्थिति आई है वह उनके द्वारा मंत्रियों और मंत्रालय के रोज़मर्रा के कामकाज में हस्तक्षेप न करने के अधिकार को देने से ही आई है पूर्ववर्ती सभी प्रधानमंत्री हर विभाग में अपना दखल रखते थे. मनमोहन सिंह ने तो इन लोगों पर पूरा भरोसा किया पर इन लोगों ने इसका किस तरह से अनुचित लाभ उठाया यह इसी का नतीजा है और प्रधानमंत्री होने के कारण इस पूरे प्रकरण में अब मनमोहन सिंह को भी बहुत सारे उत्तर तो देने ही होंगें....
मेरी हर धड़कन भारत के लिए है...
आज जिस तरह से स्पेक्ट्रम विवाद की आंच हर राजनैतिक दल को झुलसा रही है उससे तो यही लगता है कि कुछ ने इसमें अपने हितों को साधा और कुछ तो बिना बात के ही आरोपी बन गए हैं क्योंकि उस समय जो भी निर्णय लिए गए थे उसमें उनकी सामूहिक भूमिका थी. इन सभी बातों पर गंभीरता से विचार करने के बाद सरकार को होने वाले राजस्व नुकसान का आंकलन किया जाना चाहिए और आज के समय उसे उन कम्पनियों से चरण बद्ध तरीके से वसूल किया जाना चाहिए क्योंकि कहीं न कहीं से जो भी नुकसान हुआ है अब उसकी भरपाई होनी चाहिए. देश को हुए राजस्व से जुड़े मसलों को इस तरह से नहीं छोड़ा जा सकता और आज के समय में १९९८ में बनायीं गयी नीतियों को लेकर बिना बात की बहस भी नहीं होनी चाहिए क्योंकि समय के साथ ही ज़रूरतें बदलती जाती हैं अब केवल नेताओं पर भरोसा करने के स्थान पर इस तरह के मामलों में देश के विशेषज्ञों को शामिल करने का प्रयास होना चाहिए जिससे आने वाले समय में इस तरह की घटनाओं को रोका जा सके. साथ ही किसी भी कम्पनी से जुड़े व्यक्ति की राय को लग से सुना जाये और समिति अपनी राय अलग से दे जिससे सही स्थिति का पता चल सके.
पूरा मामला चूंकि सर्वोच्च न्यायालय के सामने विचाराधीन है इसलिए वहीं पर नेताओं और अधिकारियों द्वारा की गयी गलतियों के बारे में फैसला होगा फिर भी आगे से केवल चंद अनुभवहीन मंत्रियों के समूह के स्थान पर अब विशेषज्ञों की राय लेने की भी परंपरा बनायीं जानी चाहिए क्योंकि कोई बहुत अच्छा मंत्री तो हो सकता है पर वह हर क्षेत्र की तकनीकी बारीकियों को भी समझता ही हो यह पूरी तरह से संभव नहीं है ? जिस तरह से प्रधानमंत्री ने भी इस बात के सन्दर्भ में बयान दिया है कि तत्कालीन मंत्री ने भी इस बात को कहा था कि मंत्रियों का समूह इस तकनीकी मुद्दे को सुलझा नहीं सकता है तो उनसे यह गलती तो हुई है कि उन्हें इस मामले की गंभीरता को समझते हुए एक विशेषज्ञों की समिति गठित करने के बारे में अपनी राय तो देनी ही चाहिए थी. आज मनमोहन सिंह के सामने जो स्थिति आई है वह उनके द्वारा मंत्रियों और मंत्रालय के रोज़मर्रा के कामकाज में हस्तक्षेप न करने के अधिकार को देने से ही आई है पूर्ववर्ती सभी प्रधानमंत्री हर विभाग में अपना दखल रखते थे. मनमोहन सिंह ने तो इन लोगों पर पूरा भरोसा किया पर इन लोगों ने इसका किस तरह से अनुचित लाभ उठाया यह इसी का नतीजा है और प्रधानमंत्री होने के कारण इस पूरे प्रकरण में अब मनमोहन सिंह को भी बहुत सारे उत्तर तो देने ही होंगें....
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