महाराष्ट्र के सतारा जिले की जिला परिषद् ने एक ऐसे कार्यक्रम का आयोजन किया जिसके बारे में भारत के पुरुष प्रधान समाज में कोई सोचना भी नहीं चाहता है. इस कार्यक्रम के तहत पूरे जनपद में सर्वेक्षण करने के बाद नकुशा नाम की लगभग २०० लड़कियों के नाम बदल कर ऐश्वर्या रखे गए. मराठी में नकुशा का शाब्दिक अर्थ "अनचाही" या अपशकुनी से लगाया जाता है और वहां पर पुत्र की चाह में बैठे माँ-बाप के लिए फिर से पुत्री होने पर उनका नाम नकुशा रखने की परंपरा रही है. इससे पुरुष प्रधान समाज में लड़कों की चाहत के बारे में भी लोगों की उत्सुकता सामने आती है. अभी तक समाज के इतने आगे तक बढ़ जाने के बाद भी आज भी लोगों में लड़का लड़की का भेद नहीं मिट पाया है जबकि भ्रूण परीक्षण की शुरुआत करने के कारण ही आज हरियाणा में लड़कियां इतनी कम हो गयी हैं कि बहुत सारी जगहों पर आज लड़कों के सामने शादी लायक उपयुक्त लड़कियों की कमी की समस्या आ गयी है.
आज हमारे देश के पुरुष प्रधान समाज में जिस तरह से लड़कियों और महिलाओं के साथ भेद भाव किया जाता है उससे पीछा छुड़ाना कोई आसान काम नहीं पर पर सरकारी और सामाजिक स्तर पर इस कमी को दूर करने के लिए उठाये जाने वाले क़दम अपने आप में बहुत महत्वपूर्ण होते हैं. जिस तरह से इस कार्यक्रम के बारे में सोचना और फिर अभिभावकों को इन लड़कियों के नाम बदलने के लिए राज़ी करना एक बहुत बड़ा काम था उसी तरह से यह बात भी महत्वपूर्ण थी कि कम से कम इस बारे में सोचा तो गया. अगर २०० बच्चियों के अभिभावकों ने इस कार्यक्रम में भाग लिया तो ४०० लोगों की मानसिकता तो बदली ही और उन गाँवों में इस बात के बारे में जागरूकता भी फैली कि आगे से वे ऐसे नाम रखने से पहले दस बार सोचेंगें. कोई भी परिवर्तन अचानक ही नहीं होता अपर उसकी शुरुआत इसी तरह से अचानक ही हो जाया करती है और यह ख़ुशी की बात है कि छोटे स्तर पर ही सही यह बदलाव शुरू तो हो गया है.
निश्चित तौर पर सतारा की यह घटना कम से कम महाराष्ट्र के लोगों की आँखें खोलने वाली साबित होने वाली है इसे कोई बहुत बड़ा सामाजिक परिवर्तन तो नहीं कहा जा सकता है पर इस बारे में जिस तरह से लोगों ने सोचा और जिला परिषद् के इस कार्यक्रम में भाग लिया वह कहीं न कहीं से लड़कियों के बारे में एक बदलती हुई सोच का एहसास तो जगाता है है. अभी तक कहीं से भी इस तरह के किसी व्यापक कार्यक्रम के बारे में सूचना नहीं मिली है पर यह छोटा सा क़दम ही आगे चलकर किसी बड़े सामाजिक आन्दोलन को जन्म दे सकता है. पूरे महाराष्ट्र में तो नहीं पर इस कार्यक्रम के बाद आने वाले समय में सतारा और आस पास के लोग लड़कियों के नाम नकुशा रखे जाने से पहले सोचेंगें तो ज़रूर..... अगर यह नाम इतना ख़राब नहीं होता तो इसके पीछे छिपी मानसिकता पर चोट पहुँचाने में कुछ आगे बढ़ना सीखा ही जा सकता है जिससे यह नाम लडकियों की पहचान बनने से रुके और शायद आगे से जन्म लेने वाली बेटियां इस नाम और इससे जुडी मानसिकता से छुटकारा भी पा सकें.
मेरी हर धड़कन भारत के लिए है...
आज हमारे देश के पुरुष प्रधान समाज में जिस तरह से लड़कियों और महिलाओं के साथ भेद भाव किया जाता है उससे पीछा छुड़ाना कोई आसान काम नहीं पर पर सरकारी और सामाजिक स्तर पर इस कमी को दूर करने के लिए उठाये जाने वाले क़दम अपने आप में बहुत महत्वपूर्ण होते हैं. जिस तरह से इस कार्यक्रम के बारे में सोचना और फिर अभिभावकों को इन लड़कियों के नाम बदलने के लिए राज़ी करना एक बहुत बड़ा काम था उसी तरह से यह बात भी महत्वपूर्ण थी कि कम से कम इस बारे में सोचा तो गया. अगर २०० बच्चियों के अभिभावकों ने इस कार्यक्रम में भाग लिया तो ४०० लोगों की मानसिकता तो बदली ही और उन गाँवों में इस बात के बारे में जागरूकता भी फैली कि आगे से वे ऐसे नाम रखने से पहले दस बार सोचेंगें. कोई भी परिवर्तन अचानक ही नहीं होता अपर उसकी शुरुआत इसी तरह से अचानक ही हो जाया करती है और यह ख़ुशी की बात है कि छोटे स्तर पर ही सही यह बदलाव शुरू तो हो गया है.
निश्चित तौर पर सतारा की यह घटना कम से कम महाराष्ट्र के लोगों की आँखें खोलने वाली साबित होने वाली है इसे कोई बहुत बड़ा सामाजिक परिवर्तन तो नहीं कहा जा सकता है पर इस बारे में जिस तरह से लोगों ने सोचा और जिला परिषद् के इस कार्यक्रम में भाग लिया वह कहीं न कहीं से लड़कियों के बारे में एक बदलती हुई सोच का एहसास तो जगाता है है. अभी तक कहीं से भी इस तरह के किसी व्यापक कार्यक्रम के बारे में सूचना नहीं मिली है पर यह छोटा सा क़दम ही आगे चलकर किसी बड़े सामाजिक आन्दोलन को जन्म दे सकता है. पूरे महाराष्ट्र में तो नहीं पर इस कार्यक्रम के बाद आने वाले समय में सतारा और आस पास के लोग लड़कियों के नाम नकुशा रखे जाने से पहले सोचेंगें तो ज़रूर..... अगर यह नाम इतना ख़राब नहीं होता तो इसके पीछे छिपी मानसिकता पर चोट पहुँचाने में कुछ आगे बढ़ना सीखा ही जा सकता है जिससे यह नाम लडकियों की पहचान बनने से रुके और शायद आगे से जन्म लेने वाली बेटियां इस नाम और इससे जुडी मानसिकता से छुटकारा भी पा सकें.
मेरी हर धड़कन भारत के लिए है...
सार्थक पहल, सबको समान अधिकार हो।
जवाब देंहटाएं