मेरी हर धड़कन भारत के लिए है...

शनिवार, 19 नवंबर 2011

भट्टा पारसौल का सच

             मई माह में भूमि अधिग्रहण का विरोध करने पर उच्चाधिकारियों के कहने पर बड़ों को प्रसन्न करने और आन्दोलन को कुचलने के लिए पुलिस ने जिस तरह से कोहराम मचाया और महिलाओं / बुज़ुर्गों के साथ बदसलूकी की उसकी कोई मिसाल नहीं मिल सकती इस तरह का घृणित कृत्य करने के बाद भी लखनऊ में बैठे प्रशासनिक और आला पुलिस अधिकारी जिस तरह से लगातार झूठ बोलते रहे उसकी भी कोई सानी नहीं मिल सकती है. बड़ों के मौखिक आदेश के अनुपालन में पुलिस ने बर्बरता की सारी सीमायें तोड़ दीं और लोगों को अपने घरों से भागने को मजबूर किया गया. अब जब सीजेएम कोर्ट ने दनकौर पुलिस को यह आदेश दे दिया है कि वह एक डीएसपी, एक इंस्पेक्टर, तीन थानाध्यक्षों समेत २०/२५ पुलिस वालों पर गंभीर धाराएँ लगाये तो राज्य सरकार के पास कहने के लिए क्या बचता है ? इस मामले में केवल स्थानीय पुलिस को दोषी नहीं माना जा सकता है क्योंकि उन्होंने जो कुछ भी किया वह लखनऊ से आये आदेशों के बाद ही किया गया जो कि केवल सरकार की मुखिया को प्रसन्न करने का एक उपक्रम ही था.
   इस मामले में जब राहुल गाँधी ने गाँव का दौरा करने के बाद मसला मीडिया के सामने उछाला था तो लोगों ने उनका मज़ाक उड़ाया था साथ ही राज्य सरकार ने भी यह कहा था वहां पर ऐसा कुछ भी नहीं हुआ था. सवाल यहाँ पर कुछ होने या न होने का नहीं वरन यह है कि क्या लोकतंत्र में पुलिस को इतनी छूट दी जा सकती है या फिर उसे इस तरह से किसी भी आन्दोलन को कुचलने के लिया कहा जा सकता है ?  उत्तराखंड की मांग कर रहे लोगों को दिल्ली जाने से इसी तरह मुलायम सरकार ने भी रामपुर में रोकने की कोशिशें की थीं जिसमें बाद में बहुत कुछ बवाल मचा था. इस तरह के किसी भी आन्दोलन से निपटने के लिए कुछ ऐसी व्यवस्था होनी चाहिए जिससे कुछ अनैतिक होने पर बड़ों पर भी कार्यवाही की जा सके तभी इस तरह की घटनाएँ रुक पाएंगीं. अभी तक केवल राजनैतिक हितों की पूर्ति के लिए कुछ अधिकारी पार्टी के कार्यकर्ताओं जैसा व्यवहार करने लगते हैं जिससे नीचे के कर्मचारी या पुलिस कर्मी तो फँस जाते हैं पर आदेश जारी करने वाले बड़ों का कुछ नहीं बिगड़ता है. ऐसा नहीं है कि पुलिसकर्मी हमेशा ही बर्बर होते हैं पर जब उन्हें कुछ भी करने की छूट देकर किसी काम को रोकने के लिए कह दिया जाता है तो वे बर्बरता की सारी सीमायें पार कर जाते हैं क्योंकि उन्हें भी उसी सरकार और अधिकारियों के नीचे ही तो काम करना होता है जो अपने हितों के लिए उनका इस्तेमाल कर रहे होते हैं ?
   अब कोर्ट से इस तरह के आदेश आने के बाद लखनऊ में चुप्पी क्यों है ? जब अपना काम निकालना था तो इन पुलिकर्मियों का इस्तेमाल कर ही लिया गया और अब जब उनके फंसने का समय आया है तो राज्य सरकार संभवतः नियमों की याद करके अब कानून के सम्मान की बात बहुत बेशर्मी से ही करने जा रही है. ऐसे आन्दोलन कुचल कर नेता के सामने कुछ अंक हासिल करने वाले बड़बोले गृह विभाग के अधिकारी और अन्य बड़े कहाँ छिपे हुए हैं ? क्या कोई इस बात का जवाब देने के लिए लखनऊ में बचा है कि अब इन पुलिकर्मियों के भविष्य के बारे में कौन सोचेगा ? इस तरह की घटनाओं के बाद अब पुलिस के निचले स्तर के कर्मियों को ऐसे में क्या करना चाहिए यह भी क्या कोर्ट ही बताएगी ? अनुशासन के नाम पर इस पुलिस से जो कुछ भी कराया गया उसके बारे में अब कौन जवाब देगा ? शायद कोई नहीं और ये पुलिस कर्मी अपने भाग्य को कोसते हुए जेल में अपना समय बितायेंगें और उस घड़ी को कोसेंगें जब उन्होंने अपने उच्चाधिकारियों के आदेश को इस हद तक मानने का काम किया था जो कि किसी भी स्तर पर अनुशासन की सीमाओं से बहुत परे था....   

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