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बुधवार, 23 नवंबर 2011

कानून, आतंक और इशरत

           जिस तरह से इशरत जहाँ मुठभेड़ मामले में कोर्ट में गुजरात सरकार को एक झटका तो दिया ही है पर जिस तरह से अब इशरत को निर्दोष साबित करने की बातें हो रही हैं उससे यही लगता है कि इस मामले में एक बार फिर से राजनीति हावी होने वाली है. जिस तरह से फर्जी मुठभेड़ में इशरत को उसके अन्य साथियों समेत मारा गया उसे उचित नहीं ठहराया जा सकता है और इस बात को कोर्ट ने भी कहा है पर क्या इशरत वास्तव में पूरी तरह से बेदाग़ थी अब इस बात पर विचार किये जाने की ज़रुरत है. हमारे देश में कुछ ऐसी परंपरा ही बनती चली जा रही है जिसमें केवल अपने हितों के बारे में सोचा जाना ही प्राथमिकता में आ गया है जबकि किसी देश या समाज के लिए सोचा जाना तभी सार्थक होता है जब वहां से स्वार्थ को पूरी तरह से हटा दिया जाये. गुजरात आतंकियों के निशाने पर सबसे अधिक है जिस कारण से वहां का शासन और सुरक्षा बल भी कुछ अधिक ही सतर्क रहा करते हैं पर इस सतर्कता को आज के परिदृश्य में किसी भी तरह से ग़लत भी नहीं कहा जा सकता है क्योंकि गुजरात में हमला करके आतंकी कुछ कर दिखाना चाहते हैं जो शायद सरर्कता के कारण उन्हें करने का अवसर नहीं दे रहा है ?
    इशरत मामले में पूर्व केंद्रीय गृह सचिव जी के पिल्लई ने भी इस बात की पुष्टि करते हुए कहा है कि इशरत के बारे में गुप्तचर रिपोर्टों के माध्यम से गुजरात को सूचित किया गया था जिसके बाद से वह सुरक्षा राडार पर भी थी. उसके मारे जाने के बाद आतंकियों ने अपनी वेबसाइट पर उसे शहीद का दर्ज़ा भी दिया था जिसे बाद में हटा दिया गया था क्योंकि उससे शायद यह साबित हो जाता कि इशरत भी आतंकियों से सम्बंधित थी. अभी तक कहीं से भी इस बात के पूरे सबूत नहीं मिल पाए हैं कि इशरत पूरी तरह से सही थी क्योंकि उसके सम्बन्ध आतंकियों से थे और मुठभेड़ वाले दिन उसे घेरने पर संदिग्ध मसला होने पर सुरक्षा बलों ने उसे मार गिराने में देर नहीं लगायी. अब देश की सुरक्षा में लगे हुए जवानों ने किन परिस्थियों में यह कदम उठाया उन्हें मुठभेड़ में मारने के स्पष्ट निर्देश दिए गए थे या फिर परिस्थितिजन्य कारणों की वजह से उसे मार दिया गया यह बताने वाला अब कोई नहीं है पर कोर्ट ने मुठभेड़ को फ़र्ज़ी माना है पर कहीं से भी यह नहीं कहा है कि इशरत सामान्य नागरिक थी क्योंकि अभी भी उसके ख़िलाफ़ सबूतों पर विचार किया जाना बाक़ी है.
   किसी भी मुठभेड़ के बारे में बाद में कमरों में बैठकर बातें करना बहुत आसान है पर जब सामने से यह पता न हो कि कौन सी गोली कहाँ से आकर ज़िन्दगी को ख़त्म कर दे तो पूरी तरह से विवेक पर टिके रहना कठिन ही हो जाता है और कई बार न चाहते हुए भी ग़लत कदम उठ जाते हैं. आज किसी के मारे जाने पर हमारे देश में कुछ तथाकथित बुद्धिजीवी लोग मानवाधिकार की बातें करने में नहीं चूकते हैं पर जब हमारे जवानों के शहीद होने पर उनके पार्थिव शरीर उनके घरों को पहुँचते हैं तो उनके मानवाधिकारों के लिए बात करने के लिए यही लोग कहाँ छिप जाते हैं यह कौन बताएगा ? क्या हमारे शहीदों के परिवार के आंसुओं की कोई कीमत नहीं है क्योंकि देश को टुकड़ों में बांटने के मंसूबे रखने वालों की पैरवी करने के हितैषी यहाँ पर आम तौर पर पाए जाते हैं ? जब संसद पर हमला हुआ था और लाइव टीवी पर घबराये हुए सांसदों को सबने देखा था वे किस तरह से खौफ़ में जी रहे थे यह देश ने देखा था जबकि वे दिल्ली में थे पर दूर किसी क्षेत्र में आतंकियों के साथ मुठभेड़ करते समय जवानों के दिल में क्या चलता होगा इसका अंदाज़ा लगाने को कोई तैयार नहीं है. इशरत मुठभेड़ फ़र्ज़ी हो सकती है पर आतंकियों से सम्बन्ध रखने वलों के प्रति सहानुभूति रखने वाले भी देश के उतने ही दुश्मन हैं जितने ये आतंकी....      

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