माओवादी कमांडर किशनजी की मौत की पुष्टि होने के बाद जस तरह से घटिया
राजनीति ने अपना सर फिर से उठाना शुरू कर दिया है उससे यही लगता है कि देश
में नेताओं के पास फालतू का बहुत समय बचा हुआ है. जब संसद में सार्थक बहस
किये जाने का समय होता है तो ये लोग सदन को चलने ही नहीं देते और जब किसी
महत्वपूर्ण मुद्दे पर चर्चा होती है तो अधिकांश सांसद सदन से गायब रहते हैं
? जिस तरह से किशनजी की मौत हुई उस पर कोई भी सवाल उठा सकता है पर उसके
कारण देश में कितनी समस्या चल रही थी इस बात पर विचार किये जाने के लिए कोई
भी तैयार नहीं है ? आख़िर क्यों आज जब किशनजी को मारा जा चुका है तो उसके
प्रति इतनी सहानुभूति जताने वाले लोग कहाँ से आ गए हैं ? जब यही माओवादी
अपनी अलगाववादी और हिंसक गतिविधियों से पूरे भारत को हिला देते हैं तो उस
समय मारे गए निर्दोष नागरिकों और शहीद हुए सुरक्षा बलों के परिजनों को के
प्रति संवेदना के दो बोल भी इन नेताओं के मुंह से नहीं सुनाई देते हैं ?
जब तीन दशकों से अधिक समय तक पश्चिम बंगाल में राज करने वाले वामपंथियों से इस समस्या से सही ढंग से निपटना ही नहीं आया तो अब जब केंद्रीय सुरक्षा बल और राज्य सरकारें मिल-जुल कर इन पर शिकंजा कस रही हैं तो लोगों को पता नहीं क्या परेशानी हो रही है ? ऐसा भी नहीं है कि इन लोगों पर अचानक ही हमला बोल दिया गया है क्योंकि इससे पहले बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने भी हथियार बंद लोगों से समर्पण कर बातचीत करने के लिए आगे आने के लिए कहा था पर ये माओवादी शायद यह भूल गए कि ममता अपनी बात पर दृढ़ रहती हैं और कई बार वे अपनी बात को पूरा करने के लिए सभी सीमायें पार कर जाती हैं ? जब सरकार की तरफ़ से बातचीत की पेशकश की गयी थी और माओवादियों को सरकारों के तौर तरीकों से ही समस्या थी तो कम से कम बंगाल में हुए सत्ता परिवर्तन के बाद उन्हें बातचीत का रास्ता तो अपनाना ही चाहिए था जिससे मुद्दों पर विचार विमर्श होता और ममता जिस तरह से कम से कम बंगाल के बारे में फैसले लेने में सक्षम हैं तो उनसे किसी हद तक बात को आगे तो बढ़ाया ही जाना चहिये था ? बातचीत के टूटने पर किसी भी तरह के निर्णय के लिए ये स्वतंत्र थे पर इन्होने बात करने के रास्ते पर आगे बढ़ने का प्रयास ही नहीं किया ?
आज के दिन इस तरह की गतिविधियों में जिस तरह से हिंसा के लिए ज़िम्मेदार लोगों के मारे जाने पर अचानक ही उनके हितैषी पैदा हो जाते हैं उससे यही लगता है कि सभी को केवल अपने राजनैतिक हितों की परवाह ही है उन्हें देश की जनता और देश से कोई सरोकार है ही नहीं ? देश में हर तरफ़ इस तरह की गतिविधियों में शामिल लोगों के प्रति सद्भाव दिखाने वाले यह कैसे भूल सकते हैं कि इन लोगों ने कितने मासूम लोगों का खून बहाया है ? आज इस तरह से किसी आतंकी या अन्य अपराधी के मारे जाने पर जिस तरह से मानवाधिकार और राष्ट्रीय / अंतर्राष्ट्रीय कानूनों की दुहाई दी जाने लगती है उससे क्या हासिल होने वाला है ? हो सकता है की इस तरह के कुछ मामलों में पुलिस की तरफ़ से ज़्यादतियों भी होती है पर इसका मतलब यह नहीं है कि किशनजी या अन्य कोई आतंकी सभी तरह के अधिकारों को रखता है जबकि उसने आम लोगों के सभी अधिकारों को छीनने में कोई कसर नहीं उठा रखी है ? किसी भी सामान्य जन को इस तरह से मारा जाना ग़लत है पर जो हिंसा के लिए ज़िम्मेदार है तो उसके साथ अगर ऐसा होता है तो उसके अधिकारों की बात करने का क्या कोई मतलब भी बनता है ?
मेरी हर धड़कन भारत के लिए है...
जब तीन दशकों से अधिक समय तक पश्चिम बंगाल में राज करने वाले वामपंथियों से इस समस्या से सही ढंग से निपटना ही नहीं आया तो अब जब केंद्रीय सुरक्षा बल और राज्य सरकारें मिल-जुल कर इन पर शिकंजा कस रही हैं तो लोगों को पता नहीं क्या परेशानी हो रही है ? ऐसा भी नहीं है कि इन लोगों पर अचानक ही हमला बोल दिया गया है क्योंकि इससे पहले बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने भी हथियार बंद लोगों से समर्पण कर बातचीत करने के लिए आगे आने के लिए कहा था पर ये माओवादी शायद यह भूल गए कि ममता अपनी बात पर दृढ़ रहती हैं और कई बार वे अपनी बात को पूरा करने के लिए सभी सीमायें पार कर जाती हैं ? जब सरकार की तरफ़ से बातचीत की पेशकश की गयी थी और माओवादियों को सरकारों के तौर तरीकों से ही समस्या थी तो कम से कम बंगाल में हुए सत्ता परिवर्तन के बाद उन्हें बातचीत का रास्ता तो अपनाना ही चाहिए था जिससे मुद्दों पर विचार विमर्श होता और ममता जिस तरह से कम से कम बंगाल के बारे में फैसले लेने में सक्षम हैं तो उनसे किसी हद तक बात को आगे तो बढ़ाया ही जाना चहिये था ? बातचीत के टूटने पर किसी भी तरह के निर्णय के लिए ये स्वतंत्र थे पर इन्होने बात करने के रास्ते पर आगे बढ़ने का प्रयास ही नहीं किया ?
आज के दिन इस तरह की गतिविधियों में जिस तरह से हिंसा के लिए ज़िम्मेदार लोगों के मारे जाने पर अचानक ही उनके हितैषी पैदा हो जाते हैं उससे यही लगता है कि सभी को केवल अपने राजनैतिक हितों की परवाह ही है उन्हें देश की जनता और देश से कोई सरोकार है ही नहीं ? देश में हर तरफ़ इस तरह की गतिविधियों में शामिल लोगों के प्रति सद्भाव दिखाने वाले यह कैसे भूल सकते हैं कि इन लोगों ने कितने मासूम लोगों का खून बहाया है ? आज इस तरह से किसी आतंकी या अन्य अपराधी के मारे जाने पर जिस तरह से मानवाधिकार और राष्ट्रीय / अंतर्राष्ट्रीय कानूनों की दुहाई दी जाने लगती है उससे क्या हासिल होने वाला है ? हो सकता है की इस तरह के कुछ मामलों में पुलिस की तरफ़ से ज़्यादतियों भी होती है पर इसका मतलब यह नहीं है कि किशनजी या अन्य कोई आतंकी सभी तरह के अधिकारों को रखता है जबकि उसने आम लोगों के सभी अधिकारों को छीनने में कोई कसर नहीं उठा रखी है ? किसी भी सामान्य जन को इस तरह से मारा जाना ग़लत है पर जो हिंसा के लिए ज़िम्मेदार है तो उसके साथ अगर ऐसा होता है तो उसके अधिकारों की बात करने का क्या कोई मतलब भी बनता है ?
मेरी हर धड़कन भारत के लिए है...
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