मेरी हर धड़कन भारत के लिए है...

रविवार, 27 नवंबर 2011

चीन से वार्ता

      भारत चीन के बीच २८/२९ नवम्बर को होने वाली सीमा वार्ता को चीन के दलाई लामा से सम्बंधित पूर्वाग्रह के कारण एक बार फिर से स्थगित करना पड़ा है. इस वार्ता को निरस्त करने में चीन की यह मांग आड़े आ गयी कि भारत में हो रहे अंतराष्ट्रीय बौद्ध सम्मलेन में दलाई लामा को शामिल नहीं होने दिया जाये. भारत ने इस मसले पर राजनयिक स्तर से यह उत्तर दे ही दिया था कि यह एक धार्मिक सम्मेलन है और भारत में सभी को मिली धार्मिक आज़ादी के कारण इसको रोकने या इसमें शामिल होने से दलाई लामा को रोकने का कोई मतलब ही नहीं बनता है. इसके बाद भी चीन की तरफ़ से ऐसा कुछ भी नहीं रहा कि वार्ता को शांति पूर्वक शुरू किया जाये जिस कारण इसके स्थगित होने के अतिरिक्त और कोई रास्ता भी नहीं बचा था ? भारत ने दलाई लामा को जो सम्मान शुरू से दे रखा है वह चीन के शासकों को रास नहीं आता है और इसी कारण चीन दलाई लामा के भारत में शरण मांगने के समय से चिढ़ा बैठा है और समय समय पर वह भारत के लिए पाक के साथ मिलकर नयी नयी समस्याएं पैदा करता रहता है.
      दलाई लामा को आम भारतीय जिस दृष्टि से देखते हैं उसके बाद कोई भी सरकार उनके सम्मान में किसी भी तरह की कमी करने या उपेक्षा दिखाने के बारे में सोच भी नहीं सकती है क्योंकि भारतीय मूल्यों और परम्पराओं में शरण दिए हुए किसी भी व्यक्ति की पूरी रक्षा करने का विधान रहा है जबकि चीन और अन्य देशों में हर व्यक्ति या राष्ट्र के उपयोग में आने तक ही उसके बारे में सोचा जाता है और मतलब हल हो जाने के बाद उन्हें छोड़ दिया जाता है. भारतीय और बौद्ध परम्पराओं के अनुसार पंचशील सिद्धांत को मानने में चीन यकीन करता है पर जब इस पर अमल करने का समय आता है तो वह अपने छुद्र हितों पर सारे नियम और परम्पराएँ छोड़ दिया करता है. चीन में ऐसा करना आसान होगा पर भारत में जैसा हमारी संस्कृति सिखाती है उसमें ऐसा करना सोचा भी नहीं जा सकता है. चीन का इतिहास बहुत प्राचीन हो सकता है पर भारत जैसी नैतिक परम्पराएँ वहां पर देखने को नहीं मिलती हैं. चीन वैसे भी आजकल वियतनाम की समुद्री सीमाओं में भारत की उपस्थिति के कारण चिढ़ा हुआ है पर अंतर्राष्ट्रीय कानूनों के अनुसार चीन भारत पर नियमों की अवहेलना करने का आरोप भी नहीं लगा सकता है.
    हो सकता है कि हमेशा की तरह इस बार भी चीन दबाव की राजनीति पर काम करना चाहता हो क्योंकि उसकी सोच केवल वहीं तक है कि केवल तात्कालिक मुद्दों को सामने लाकर दीर्घकालिक मुद्दों पर काम किया जाये जिससे उसके आर्थिक हित भी सुरक्षित रहें और कोई अन्य देश उसके इस संदेह भरे और अप्रत्याशित आचरण के बारे में कभी भी कोई अनुमान न लगा सके. पर शायद चीन ऐसी हरकतें करते समय यह भूल जाता है कि आज का भारत १९६० के दशक वाला भारत नहीं है और किसी भी तरह की ऐसी कोई भी हरकत अब भारत के साथ उसके व्यापारिक हितों को बहुत चोट पहुंचा सकती हैं ? अब भारत केवल विकासशील देश ही नहीं है बल्कि चीन के साथ बहुत बड़ा व्यापारिक भागीदार भी है इस स्थिति में किसी भी तरह से अब चीन किसी भी मामले में अब अपनी मनमानी करने की स्थिति में नहीं है क्योंकि अगर व्यापारिक मसलों पर हर बार भारत भी ऐसा ही करने लगेगा तो चीन के हाथ से बहुत बड़ा बाज़ार जाता रहेगा. आज भारत में औद्योगिक विकास के चलते चीन से टक्कर लेने की क्षमता आ चुकी है अब यह चीन को तय करना है कि वह अब संबंधों में बराबरी चाहता है या अपने दरोगा होने की ग़लतफ़हमी के साथ ही जीना चाहता है.         

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