जिस तरह से योजना आयोग और गृह मंत्रालय के बीच राष्ट्रीय जनसँख्या रजिस्टर और आधार को लेकर गतिरोध बना हुआ था उस पर प्रधानमंत्री की पहल पर उनकी अध्यक्षता में हुई बैठक में कुछ सहमति बन गयी है और अब संभवतः ये दोनों परियोजनाएं एक साथ भी चलायी जा सकती हैं. अभी तक योजना आयोग अपने लिए आधार की बात कर रहा था जिससे उसे सभी नागरिकों की सही पहचान और उनकी वास्तविक स्थिति का पता लग सके पर सरकारी योजनाओं की गति को देखते हुए ही इस सरकार ने यह भी सोचा कि पूरे देश के नागरिकों को एक पहचान संख्या दे दी जाये जिससे आने वाले समय में पहचान का संकट पूरी तरह से समाप्त हो जाये. इस मामले में जिस तरह से योजनायें बनायीं गयी वे अपने स्तर पर बिलकुल ठीक थीं पर इनके अनुपालन में जो भी व्यावहारिक कठिनाइयाँ आने लगीं और सुरक्षा का मुद्दा बनने लगा उसके बाद आधार पर एकदम से काम रुक सा गया था. आशा है कि अब यह काम फिर से पटरी पर वापस लौट आएगा और आने वाले समय में इससे देश को बहुत लाभ भी होगा.
यह सह है कि भारत जैसे विशाल देश में इस तरह की किसी विशिष्ट पहचान की बहुत आवश्यकता है पर जब तक इस पूरी परियोजना को धरातल पर ठीक ढंग से नहीं उतारा जायेगा तब तक कोई भी इस बारे में इसके लाभ की बात नहीं कर सकता है. इस पूरे मसले में क्यों नहीं दोनों परियोजनाओं को एक साथ धन अवमुक्त किया जाये और दोनों को ही यह आदेश दे दिया जाये कि दोनों परियोजनाओं में आवश्यक पूरे आंकड़ों को ठीक ढंग से एकत्रित किया जाये और इस मसले को विभागों की खींचतान के बजाय पूरे मनोयोग से चलाया जाये जिससे आने वाले समय में कोई भी भारतीय अपनी पहचान आसानी से सिद्ध कर सके. अभी तक जिस तरह से सरकारी दस्तावेज़ बनाये जाते हैं उससे यही पता चलता है कि कहीं न कहीं भ्रष्टाचार के कारण अपात्र लोगों को भी भारतीय होने के प्रमाण दे दिए जाते हैं जिससे सुरक्षा सम्बन्धी समस्याएं उत्पन्न होने लगती हैं. अभी तक जिस तरह से पूरे देश में विभिन्न तरीके के पहचान पत्रों को उपयोग में लाया जा रहा है और सभी को अलग अलग संस्थाएं जारी करती हैं जिससे इनमें भ्रष्टाचार की बहुत गुंजाईश रहती है और देश के संसाधनों का सही उपयोग भी नहीं हो पाता है साथ ही सुरक्षा से जुडी चिंताएं अपने स्थान पर बनी रहती हैं.
अब इस बात पर विचार किये जाने की आवश्यकता है कि क्या देश को इन दो तरह की पहचान संख्याओं की आवश्यकता है या फिर दोनों को एक साथ जोड़कर चलाया जाना चाहिए क्योंकि दोनों के उद्देश्य एक जसे ही हैं पर उनको अलग अलग विभागों द्वारा संचालित किया जा रहा है. अगर इसमें किसी विभाग की प्रतिष्ठा का कोई मसला बन रहा हो तो उसे भी समझा जाना चाहिए क्योंकि देश की प्रतिष्ठा से बढ़कर किसी की भी प्रतिष्ठा नहीं हो सकती है. साथ ही एक जैसा काम करने में देश का पैसा दो बार खर्च करने की भी क्या आवश्यकता है क्योंकि जब तक कोई एक समाधान नहीं निकलता है तब तक इन मदों में खर्च किये जाने वाले पैसे का क्या उपयोग है ? अच्छा तो यह रहेगा कि इस पूरी परियोजना को विभागों की खींचतान से अलग कर एक नए नाम से विभाग बना दिया जाए जो केवल इससे जुड़े मसलों पर ही विचार करे और साथ ही इसके लिए एक न्यायालय या न्यायिक आयोग भी बना दिया जाये जो पहचान से जुड़े किसी भी विवाद को समयबद्ध तरीके से निपटाने के लिए बाध्य हो. जब इतने बड़े स्तर पर काम हो रहा है तो आने वाले समय में इस तरह के मसले भी सामने आ सकते हैं और उनको सामान्य अदालतों में निपटाने की बाध्यता भी नहीं होनी चाहिए जिससे यह योजना पूरी तरह से और पूरे देश में लागू हो सके.
मेरी हर धड़कन भारत के लिए है...
यह सह है कि भारत जैसे विशाल देश में इस तरह की किसी विशिष्ट पहचान की बहुत आवश्यकता है पर जब तक इस पूरी परियोजना को धरातल पर ठीक ढंग से नहीं उतारा जायेगा तब तक कोई भी इस बारे में इसके लाभ की बात नहीं कर सकता है. इस पूरे मसले में क्यों नहीं दोनों परियोजनाओं को एक साथ धन अवमुक्त किया जाये और दोनों को ही यह आदेश दे दिया जाये कि दोनों परियोजनाओं में आवश्यक पूरे आंकड़ों को ठीक ढंग से एकत्रित किया जाये और इस मसले को विभागों की खींचतान के बजाय पूरे मनोयोग से चलाया जाये जिससे आने वाले समय में कोई भी भारतीय अपनी पहचान आसानी से सिद्ध कर सके. अभी तक जिस तरह से सरकारी दस्तावेज़ बनाये जाते हैं उससे यही पता चलता है कि कहीं न कहीं भ्रष्टाचार के कारण अपात्र लोगों को भी भारतीय होने के प्रमाण दे दिए जाते हैं जिससे सुरक्षा सम्बन्धी समस्याएं उत्पन्न होने लगती हैं. अभी तक जिस तरह से पूरे देश में विभिन्न तरीके के पहचान पत्रों को उपयोग में लाया जा रहा है और सभी को अलग अलग संस्थाएं जारी करती हैं जिससे इनमें भ्रष्टाचार की बहुत गुंजाईश रहती है और देश के संसाधनों का सही उपयोग भी नहीं हो पाता है साथ ही सुरक्षा से जुडी चिंताएं अपने स्थान पर बनी रहती हैं.
अब इस बात पर विचार किये जाने की आवश्यकता है कि क्या देश को इन दो तरह की पहचान संख्याओं की आवश्यकता है या फिर दोनों को एक साथ जोड़कर चलाया जाना चाहिए क्योंकि दोनों के उद्देश्य एक जसे ही हैं पर उनको अलग अलग विभागों द्वारा संचालित किया जा रहा है. अगर इसमें किसी विभाग की प्रतिष्ठा का कोई मसला बन रहा हो तो उसे भी समझा जाना चाहिए क्योंकि देश की प्रतिष्ठा से बढ़कर किसी की भी प्रतिष्ठा नहीं हो सकती है. साथ ही एक जैसा काम करने में देश का पैसा दो बार खर्च करने की भी क्या आवश्यकता है क्योंकि जब तक कोई एक समाधान नहीं निकलता है तब तक इन मदों में खर्च किये जाने वाले पैसे का क्या उपयोग है ? अच्छा तो यह रहेगा कि इस पूरी परियोजना को विभागों की खींचतान से अलग कर एक नए नाम से विभाग बना दिया जाए जो केवल इससे जुड़े मसलों पर ही विचार करे और साथ ही इसके लिए एक न्यायालय या न्यायिक आयोग भी बना दिया जाये जो पहचान से जुड़े किसी भी विवाद को समयबद्ध तरीके से निपटाने के लिए बाध्य हो. जब इतने बड़े स्तर पर काम हो रहा है तो आने वाले समय में इस तरह के मसले भी सामने आ सकते हैं और उनको सामान्य अदालतों में निपटाने की बाध्यता भी नहीं होनी चाहिए जिससे यह योजना पूरी तरह से और पूरे देश में लागू हो सके.
मेरी हर धड़कन भारत के लिए है...
:D
जवाब देंहटाएंगणतंत्र दिवस की हार्दिक शुभकामनाएँ