गणतंत्र दिवस पर नई दिल्ली में अपने आवास पर झंडा रोहण करने के बाद भाजपा के वरिष्ठ नेता लाल कृष्ण आडवाणी ने वोटिंग को अनिवार्य बनाये जाने की चुनाव आयोग की मंशा का पूरी तरह से समर्थन किया जिसके बाद से कई दलों ने काफ़ी तीख़ी प्रतिक्रियाएं ज़ाहिर की हैं. जब देश में शिक्षा को मौलिक अधिकार बनाया जा चुका है और अन्य कई बातों को कानून के घेरे में बाँधने की कोशिश की जा रही है तो फिर इस तरह से वोट देने को कानूनी रूप से आवश्यक बनाये जाने में क्या दिक्कत है ? जिस तरह से कानून मंत्री सलमान खुर्शीद ने इसे गंभीर मामला बताता है उससे यही लगता है कि अभी सरकार के लिए इसे कानूनी जामा पहनाना मुश्किल है या फिर सरकार इसे अभी लागू नहीं करवाना चाहती है. दिग्विजय सिंह ने जिस तरह से इसे जबरन किया जाने वाला काम बताया है वह भी समझ से परे है क्योकि क्या देश के लिए देश के नागरिक कुछ सालों में एक बार निकल कर देश के भविष्य को सुधारने के लिए वोट भी नहीं दे सकते है ? मुलायम सिंह को इससे भी ज़रूरी अन्य काम नज़र आ रहे हैं क्योंकि शायद इससे उनकी संभावनाओं पर असर पड़ सकता है ? और कोई भी दल किसी भी परिस्थिति में आज की स्थिति में बदलाव नहीं चाहता है क्योंकि इससे वह नुकसान में जा सकता है.
आज के समय में अगर देखा जाये तो अनिवार्य वोटिंग से किस तरह से देश का परिदृश्य बदल सकता है तो मुलायम, माया, वामपंथी जैसे अन्य छोटे स्तर पर काम करने वाले दलों के लिए मुश्किल बढ़ जाने वाली है क्योंकि जिस तरह से इन दलों के वोटर बड़ी संख्या में वोट डालते रहे हैं और अन्य दलों के वोट उदासीनता के चलते घरों में बैठे रहते हैं तो अनिवार्य मतदान से वे भी बाहर निकल आयेंगें जो कि इन दलों कि सीमित संभावनाओं के लिए बहुत घातक सिद्ध हो जायेगा. इन दलों के पास जाति पर आधारित जो भी आंकड़े हैं उनमें यह उनका सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन है. शिक्षित और समाज के अन्य वर्गों के लोगों के बड़ी संख्या में वोट देने से निश्चित तौर पर इन दलों के लिए मुसीबत बढ़ जाने वाली है क्योंकि कम वोट प्रतिशत हमेशा समाज के पढ़े लिखे,उच्च और माध्यम वर्ग के कारण ही रहता है और यदि ये बाहर आकर वोट देने लगे तो इन छोटे वोट समूहों पर टिके हुए दलों के सामने अस्तित्व का संकट आ जायेगा. जिसका सबसे बड़ा लाभ भाजपा को ही मिलने वाला है क्योंकि उसका वोट घरों में बैठकर चुनाव के दिन टीवी पर फ़िल्म देखना पसंद करता है और उसे वोट के दिन की छुट्टी ज्यादा अच्छी लगती है. कांग्रेस के लिए अधिक वोट प्रतिशत मिली जुली स्थिति लेकर आने वाला है क्योंकि उसके पास समाज के अन्य वर्गों के साथ शहरी और अन्य क्षेत्रों में भी वोट उपलब्ध हैं इसलिए वह इससे कुछ खास लाभ-हानि वाली स्थिति में नहीं है.
आख़िर आयोग के इस विचार का समर्थन क्यों नहीं किया जाना चाहिए क्यों हमेशा राजनैतिक दल अपनी सुविधा के अनुसार देश के संवैधानिक ढांचे को ढालना चाहते हैं ? क्यों कुछ ऐसा नहीं सोचा जाता जिससे देश के नेतृत्व को चुनने में पूरे देश की भागीदारी सुनिश्चित की जा सके ? बात चाहे कुछ भी हो जब सभी लोग वोट देने के लिए बाध्य होंगें तो अच्छे लोग भी और बड़ी संख्या में फिर से राजनीति में आना चाहेंगें क्योंकि जब उनको लगेगा कि अब जातीय मुद्दे कुछ प्रभाव नहीं दिखा पायेंगें तो वे भी आगे आने की हिम्मत दिखा पायेंगें. अभी तक केवल धर्म जाति और अन्य समीकरणों पर ही चुनाव जीते जाने के कारण देश के लिए अच्छे से काम करने वाले लोग कभी भी संसद/ विधान सभा तक नहीं पहुँच पाते हैं क्योंकि वे जिस क्षेत्र में पैदा हुए हैं वहां पर उनका आज के समय में काम करने वाला समीकरण काम ही नहीं कर पाता है ? अब इस बात के लिए प्रयास करने ही होंगें क्योंकि जब स्थानीय निकाय और ग्राम पंचायत के चुनाव होते हैं तो मत का प्रतिशत बहुत बढ़ जाता है क्योंकि उस समय एक एक वोट हार जीत के लिए अहम होता है और कोई भी प्रत्याशी इस तरह का खतरा मोल नहीं लेना चाहता है. जब छोटे चुनाव में यह अपने आप ही लागू हो जाता है तो बड़े चुनाव में इसे लागू करवाने में क्या समस्या है ?
मेरी हर धड़कन भारत के लिए है...
आज के समय में अगर देखा जाये तो अनिवार्य वोटिंग से किस तरह से देश का परिदृश्य बदल सकता है तो मुलायम, माया, वामपंथी जैसे अन्य छोटे स्तर पर काम करने वाले दलों के लिए मुश्किल बढ़ जाने वाली है क्योंकि जिस तरह से इन दलों के वोटर बड़ी संख्या में वोट डालते रहे हैं और अन्य दलों के वोट उदासीनता के चलते घरों में बैठे रहते हैं तो अनिवार्य मतदान से वे भी बाहर निकल आयेंगें जो कि इन दलों कि सीमित संभावनाओं के लिए बहुत घातक सिद्ध हो जायेगा. इन दलों के पास जाति पर आधारित जो भी आंकड़े हैं उनमें यह उनका सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन है. शिक्षित और समाज के अन्य वर्गों के लोगों के बड़ी संख्या में वोट देने से निश्चित तौर पर इन दलों के लिए मुसीबत बढ़ जाने वाली है क्योंकि कम वोट प्रतिशत हमेशा समाज के पढ़े लिखे,उच्च और माध्यम वर्ग के कारण ही रहता है और यदि ये बाहर आकर वोट देने लगे तो इन छोटे वोट समूहों पर टिके हुए दलों के सामने अस्तित्व का संकट आ जायेगा. जिसका सबसे बड़ा लाभ भाजपा को ही मिलने वाला है क्योंकि उसका वोट घरों में बैठकर चुनाव के दिन टीवी पर फ़िल्म देखना पसंद करता है और उसे वोट के दिन की छुट्टी ज्यादा अच्छी लगती है. कांग्रेस के लिए अधिक वोट प्रतिशत मिली जुली स्थिति लेकर आने वाला है क्योंकि उसके पास समाज के अन्य वर्गों के साथ शहरी और अन्य क्षेत्रों में भी वोट उपलब्ध हैं इसलिए वह इससे कुछ खास लाभ-हानि वाली स्थिति में नहीं है.
आख़िर आयोग के इस विचार का समर्थन क्यों नहीं किया जाना चाहिए क्यों हमेशा राजनैतिक दल अपनी सुविधा के अनुसार देश के संवैधानिक ढांचे को ढालना चाहते हैं ? क्यों कुछ ऐसा नहीं सोचा जाता जिससे देश के नेतृत्व को चुनने में पूरे देश की भागीदारी सुनिश्चित की जा सके ? बात चाहे कुछ भी हो जब सभी लोग वोट देने के लिए बाध्य होंगें तो अच्छे लोग भी और बड़ी संख्या में फिर से राजनीति में आना चाहेंगें क्योंकि जब उनको लगेगा कि अब जातीय मुद्दे कुछ प्रभाव नहीं दिखा पायेंगें तो वे भी आगे आने की हिम्मत दिखा पायेंगें. अभी तक केवल धर्म जाति और अन्य समीकरणों पर ही चुनाव जीते जाने के कारण देश के लिए अच्छे से काम करने वाले लोग कभी भी संसद/ विधान सभा तक नहीं पहुँच पाते हैं क्योंकि वे जिस क्षेत्र में पैदा हुए हैं वहां पर उनका आज के समय में काम करने वाला समीकरण काम ही नहीं कर पाता है ? अब इस बात के लिए प्रयास करने ही होंगें क्योंकि जब स्थानीय निकाय और ग्राम पंचायत के चुनाव होते हैं तो मत का प्रतिशत बहुत बढ़ जाता है क्योंकि उस समय एक एक वोट हार जीत के लिए अहम होता है और कोई भी प्रत्याशी इस तरह का खतरा मोल नहीं लेना चाहता है. जब छोटे चुनाव में यह अपने आप ही लागू हो जाता है तो बड़े चुनाव में इसे लागू करवाने में क्या समस्या है ?
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मतदान अनिवार्य होना चाहिये. कोई दिक्कत नहीं है इसमें.
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