केंद्र सरकार द्वारा देश में आतंक से लड़ने के लिए बनाये जा रहे राष्ट्रीय आतंकवाद रोधी केंद्र (एनसीटीसी) को लेकर एक बार फिर से अधिकारों की बहस शुरू हो चुकी है. पूरे विश्व में बढ़ती आतंकी घटनों का साया जिस तरह से भारत पर भी पड़ता रहता है उसे देखते हुए ही एक केंद्रीयकृत व्यवस्था की आवश्यकता महसूस की जा रही थी पर लगता है कि देश में केवल अपने अधिकारों के लिए चिल्लाने वाले नेताओं को यह समझ नहीं आता है कि अधिकारों की मांग करने से पहले अपने कर्तव्यों को ठीक ढंग से निभाने की कोशिश तो की जानी चाहिए. इस मसले पर नवीन पटनायक, ममता बनर्जी, नितीश कुमार और जयललिता अपने मत रख चुकी हैं उससे यही लगता है कि ये प्रावधान भी अन्य कानूनों की तरह ही विवादों में फंसने जा रहा है. अभी तक भाजपा शासित किसी राज्य की तरफ़ से इसका कोई औपचारिक विरोध तो नहीं किया गया है पर आने वाले समय में वह भी इस मुद्दे पर अपने को अलग से कुछ विशेष दिखने का प्रयास भी करने ही वाली है जिससे इस तरह के नए प्रयासों को झटका ही लगने वाला है. जब आतंक से लड़ने की बात की जाये तो किसी भी स्थिति में यह नहीं सोचा जाना चाहिए कि इससे किसके अधिकारों का हनन हो रहा है क्योंकि जो इस तरह से हमले करते हैं उनसे लड़ने के लिए हमें भी अपने कुछ अधिकारों पर विशेष परिस्थिति में कुछ समझौते करने ही होंगें.
अभी तक जिस भी तरह से देश में आतंक से निपटा जाता है उस स्थिति में कोई भी समन्वित प्रयास और भी अच्छे परिणाम दे सकता है पर कोई बड़ी घटना होने पर केंद्र-राज्य के बीच जिस तरह से अलग अलग मत दिखाई देने लगते हैं उसके बाद मुख्य मुद्दा पीछे छूट जाया करता है और आतंक से लड़ने की मज़बूत चाह केवल भाषणों में ही सिमट जाती है. केंद्रीय गृह सचिव ने इस नए विवाद के बाद इस अधिसूचना का यह यह कहकर बचाव किया है कि इसमें कोई नयी बात नहीं कही गयी है अभी तक ग़ैर कानूनी गतिविधि रोकथाम अधिनियम के तहत ही आतंक से लड़ा जा रहा था पर अब इस बात की आवश्यकता महसूस की जा रही है कि आतंक को अन्य गतिविधियों से अलग कर दिया जाये जिससे इससे प्रभावी ढंग से लड़ा जा सके. केन्द्रीय गृह सचिव ने यह स्पष्ट किया कि चूंकि इसमें कोई नए प्रावधान नहीं किये जा रहे थे इसलिए राज्यों से मशवरा करने की आवश्यकता नहीं थी क्योंकि इस तरह का कानून पहले से ही देश में मौजूद है पर आतंक से लड़ने के लिए इस केंद्र की आवश्यकता है उसे पूरा किया जा रहा है. केवल आतंक से जुड़े मसलों से निपटने के लिए एक नए केंद्र को मौजूदा कानून का तहत ही बनाया जा रहा है और किसी भी तरह से कोई अन्य कानून अस्तित्व में नहीं आने वाला है.
सैधांतिक तौर पर यह बात बिलकुल सही है कि जब कुछ काम नया नहीं किया जा रहा है तो उस बारे में विमर्श की आवश्यकता नहीं थी पर जब सभी जाँच एजेंसियों के बीच समन्वय की बात होती है तो राज्यों को लगता है कि उनके संघीय अधिकारों का हनन किया जा रहा है ? देश में आतंकी हर समय हर तरह के अधिकारों के हनन में लगे रहते हैं तो किसी राज्य को वे क्यों नहीं दिखाई देते हैं ? क्यों विभिन्न राज्यों की जांच एजेंसियां कई बार केवल हवा में ही हाथ पैर मारती नज़र आती हैं ? अगर ऐसी कोई व्यवस्था ईमानदारी से लागू की जाये तो पूरे देश की सुरक्षा चिंताओं को साझी बने जा सकता है जिससे देश के एक भाग में किसी गतिविधि में शामिल व्यक्ति के लिए पूरे देश में चेतावनी जारी हो सकती है जिससे आने वाले समय में बचकर भाग निकलने वाले आतंकियों के लिए सब कुछ करना इतना आसान नहीं रह पायेगा. क्या केंद्र सरकार द्वारा चलायी जा रही विकास और अन्य योजनायें भी राज्यों के संघीय अधिकारों का हनन करती हैं ? जब किसी योजना के अंतर्गत धनराशि आती है तो किसी को यह नहीं लगता कि उसके अधिकारों का हनन हो रहा है पर जब जवाबदेही तय करने की बात होती है तो सभी को यह लगता है कि जैसे इस तरह के कानून से सबसे पहले उन्हें ही बंद किया जाने वाला है ? नेता लोग देश को कब तक इस तरह के झगड़ों में उलझाते रहेंगें और मुख्य मुद्दों से ध्यान भटकाने का काम करते रहेंगें ?
मेरी हर धड़कन भारत के लिए है...
अभी तक जिस भी तरह से देश में आतंक से निपटा जाता है उस स्थिति में कोई भी समन्वित प्रयास और भी अच्छे परिणाम दे सकता है पर कोई बड़ी घटना होने पर केंद्र-राज्य के बीच जिस तरह से अलग अलग मत दिखाई देने लगते हैं उसके बाद मुख्य मुद्दा पीछे छूट जाया करता है और आतंक से लड़ने की मज़बूत चाह केवल भाषणों में ही सिमट जाती है. केंद्रीय गृह सचिव ने इस नए विवाद के बाद इस अधिसूचना का यह यह कहकर बचाव किया है कि इसमें कोई नयी बात नहीं कही गयी है अभी तक ग़ैर कानूनी गतिविधि रोकथाम अधिनियम के तहत ही आतंक से लड़ा जा रहा था पर अब इस बात की आवश्यकता महसूस की जा रही है कि आतंक को अन्य गतिविधियों से अलग कर दिया जाये जिससे इससे प्रभावी ढंग से लड़ा जा सके. केन्द्रीय गृह सचिव ने यह स्पष्ट किया कि चूंकि इसमें कोई नए प्रावधान नहीं किये जा रहे थे इसलिए राज्यों से मशवरा करने की आवश्यकता नहीं थी क्योंकि इस तरह का कानून पहले से ही देश में मौजूद है पर आतंक से लड़ने के लिए इस केंद्र की आवश्यकता है उसे पूरा किया जा रहा है. केवल आतंक से जुड़े मसलों से निपटने के लिए एक नए केंद्र को मौजूदा कानून का तहत ही बनाया जा रहा है और किसी भी तरह से कोई अन्य कानून अस्तित्व में नहीं आने वाला है.
सैधांतिक तौर पर यह बात बिलकुल सही है कि जब कुछ काम नया नहीं किया जा रहा है तो उस बारे में विमर्श की आवश्यकता नहीं थी पर जब सभी जाँच एजेंसियों के बीच समन्वय की बात होती है तो राज्यों को लगता है कि उनके संघीय अधिकारों का हनन किया जा रहा है ? देश में आतंकी हर समय हर तरह के अधिकारों के हनन में लगे रहते हैं तो किसी राज्य को वे क्यों नहीं दिखाई देते हैं ? क्यों विभिन्न राज्यों की जांच एजेंसियां कई बार केवल हवा में ही हाथ पैर मारती नज़र आती हैं ? अगर ऐसी कोई व्यवस्था ईमानदारी से लागू की जाये तो पूरे देश की सुरक्षा चिंताओं को साझी बने जा सकता है जिससे देश के एक भाग में किसी गतिविधि में शामिल व्यक्ति के लिए पूरे देश में चेतावनी जारी हो सकती है जिससे आने वाले समय में बचकर भाग निकलने वाले आतंकियों के लिए सब कुछ करना इतना आसान नहीं रह पायेगा. क्या केंद्र सरकार द्वारा चलायी जा रही विकास और अन्य योजनायें भी राज्यों के संघीय अधिकारों का हनन करती हैं ? जब किसी योजना के अंतर्गत धनराशि आती है तो किसी को यह नहीं लगता कि उसके अधिकारों का हनन हो रहा है पर जब जवाबदेही तय करने की बात होती है तो सभी को यह लगता है कि जैसे इस तरह के कानून से सबसे पहले उन्हें ही बंद किया जाने वाला है ? नेता लोग देश को कब तक इस तरह के झगड़ों में उलझाते रहेंगें और मुख्य मुद्दों से ध्यान भटकाने का काम करते रहेंगें ?
मेरी हर धड़कन भारत के लिए है...
संयम रख, निंदा कर. आरएसएस पर आरोप लगा कर...
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