मेरी हर धड़कन भारत के लिए है...

शुक्रवार, 23 मार्च 2012

रेल का तेल

        जिस तरह से लोक लुभावन कारणों से आख़िरकार देश के नहीं बल्कि ममता बनर्जी के रेल मंत्री ने रेल किराये में की गयी वृद्धि को वापस ले लिया है उससे किसी का भी भला नहीं होने वाला है क्योंकि जब रेल के व्यापक हित में कुछ कड़े कदम उठाने की आवश्यकता है तो रेल को घाटे के दलदल में धकेलने के प्रयास किये जा रहे हैं. जिस तरह से पिछले रेल मंत्री दिनेश त्रिवेदी ने साहस दिखाते हुए रेल के हित में अपना पद गंवाया है वैसी दूसरी मिसाल भी दुनिया भर में कहीं नहीं मिलेगी और यह सब दुर्भाग्यपूर्ण इसलिए भी अधिक है क्योंकि इस समय देश की बागडोर संभाल रहे अर्थशास्त्री पीएम के बस में गठबंधन के घटक दल नहीं रह गए हैं और रही सही कसर हाल में हुए चुनावों ने पूरी कर दी है जिसमें कांग्रेस का प्रदर्शन आशा के अनुरूप नहीं रहा है. जिस तरह से पूरे मसले को यथार्थ से दूर होकर देखा जा रहा है उससे यही लगता है कि जनता के हितैषी होने का दम भरने वाले कुछ नेता देश के संसाधनों का बंटाधार करने में लगे हुए हैं और वे किसी भी स्तर पर देश के बारे में नहीं सोचना चाहते हैं भले ही उसके लिए कुछ भी करना पड़े. क्या नए रेल मंत्री इस बात पर भी प्रकाश डालने का काम करेंगें कि जिस रेल बजट को दिनेश त्रिवेदी ने प्रस्तुत किया था उसके स्थान पर वे किस तरह से रेल के लिए धन जुटाने के किन विकल्पों अपर विचार करेंगें ?
         यह सही है कि इस बड़े किराये से रेल का पूरी तरह से भला नहीं होने वाला था फिर भी किसी भी स्थिति में कुछ भी ठोस कदम उठाने से परहेज़ करने वाले ममता बनर्जी जैसे कुछ नेता पता नहीं क्या करना चाहते हैं ? जब रेल जैसे बड़े संस्थान को आर्थिक रूप से समृद्ध करने का समय आता है तो ये कड़ा उठाने से चूक जाते हैं. इस स्थिति को देखकर यह सोचना भी बनता है कि क्या देश को वास्तव में रेल मंत्री की ज़रुरत भी है या फिर इसे स्वायत्त करके पूरी तरह से व्यावसायिक तौर पर इसका सञ्चालन किया जाये क्योंकि देश में कई संस्थान स्वायत्त तरीके से अच्छा काम कर रहे हैं. सरकार को केवल एक बात का ध्यान ही रखना होगा कि इस संस्थान में सभी कुछ व्यावसायिक तौर पर किया जाये और इसे एक सरकारी उपक्रम के तौर पर देखा जाये न कि पूरे विभाग के तौर पर ? इससे रेलवे के संसाधनों का बेहतर इस्तेमाल हो सकेगा और आने वाले समय में जो कुछ भी किया जाना है वह आसानी से हो सकेगा रेल को चलाने के लिए जितनी व्यावसायिकता की आवश्यकता होती है वह किसी भी रेल मंत्री में कभी भी नहीं सकती है और जो भी व्यावसायिक सुझाव मन्त्री को दिए जाते हैं उन पर वोटों की राजनीति हावी हो जाती है.
        देश में रेल के परिचालन, रखरखाव और विस्तार से जुड़ी परियोजनाओं को पूरी व्यावसायिकता के साथ अपनाने की आवश्यकता है जिसके लिए अगर रेल के कामों का बंटवारा भी किया जाये तो कुछ गलत नहीं होगा अभी पूरी तरह से रेल के पास अपने मंत्री की बातें मानने के अतिरिक्त दूसरा कोई विकल्प नहीं होता है जबकि समय और परिचालन लागत को देखते हुए इसमें समय पर सुधार की बहुत आवश्यकता होती है. इन सुधारों को अपनाये बिना किसी भी तरह से रेल को सही तरह से लम्बे समय तक नहीं चलाया जा सकता है. जिस तरह से केवल कुछ श्रेणी के यात्री भाड़े की बात की जा रही है उससे परिचालन का बोझ रेल पर और अधिक पड़ने वाला है क्योंकि माल भाड़ा मंहगा होने से रेलवे को अधिक प्रतिस्पर्धा से गुज़ारना होगा. उच्च श्रेणी के किराये बढ़ने से संपन्न वर्ग के लोग आने वाले समय में हवाई यात्रा को प्राथमिकता देने लगेंगे जो कि किसी भी तरह से रेलवे के लिए सही नहीं होगा. जिस किराये के दम पर रेल को चलाने की योजना ममता के पास है वह भी आने वाले समय में पूरी तरह से चरमरा सकती है जिसका सीधा असर रेल पर ही पड़ने वाला है. फिलहाल रेल के पास ऐसा कोई जादुई मंत्र नहीं है जिसके दम पर वह अपने को बचाए रख सके पर क्या रेल को इस तरह से समाप्त करने वाले किसी भी प्रयास को अब कोई गठबन्ध सरकार करना भी चाहेगी ?                    

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