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रविवार, 8 अप्रैल 2012

मुलायम, मुसलमान और बुख़ारी

           जिस तरह से अचानक ही जामा मस्जिद के शाही ईमाम सैयद अहमद बुख़ारी ने मुलायम सिंह के सामने ३ मुसलमानों को विधान परिषद् में भेजने की शर्त रखी है उससे यही लगता है कि बुख़ारी ने मुलायम से जितना समझौता किया था उसमें आज़म खान के कारण उनको वह हिस्सा नहीं मिल पाया है. जहाँ तक विभिन्न दलों द्वारा धार्मिक नेताओं को अपने साथ लिए जाने का मामला है उससे यही लगता है कि कोई भी दल इससे अछूता नहीं है और दिल्ली के शाही ईमाम के बारे में यह बात बिलकुल सटीक बैठती है क्योंकि उन्होंने अभी तक कांग्रेस और सपा का समय समय पर भरपूर समर्थन किया पर उन्हें शायद वह सब नहीं मिल पाया जो वे चाहते थे क्योंकि इन्होने कहीं न कहीं से राजनैतिक लोगों के हाथों की कठपुतली बनना स्वीकार कर लिया जिससे मुसलमानों में ही उनकी स्वीकार्यता कम हुई है. आज़म खान ने जिस बात को रेखांकित किया है वह महत्वपूर्ण है क्योंकि जब ये बुख़ारी अपने दामाद को लोकतान्त्रिक ढंग से ८० % मुस्लिम बहुलता वाली सीट सपा की लहर में पर भी नहीं जिता पाए तो वे अब किस तरह से ख़ुद को मुसलमानों का रहनुमा घोषित करने में लगे हुए हैं ? राजनेताओं को अपने काम निकालने से ही मतलब होता है और जिस तरह से ये धार्मिक लोग यह समझते हैं कि उनका किसी दल पर बहुत दबाव है तो यह केवल उनकी ग़लतफ़हमी ही होती है.
           मुग़ल शासकों के समय में ऐतिहासिक जामा मस्जिद के ईमाम को शाही ईमाम का दर्ज़ा दिया गया था क्योकि वे शाही परंपरा में नियुक्त किये जाते थे. किसी भी मस्जिद में ईमाम उसकी अच्छाइयों के दम पर नियुक्त किये जाते हैं न कि वंश परंपरा के तहत फिर जब दिल्ली में शाह ही नहीं बचे तो दिल्ली की जामा मस्जिद में बुख़ारी परिवार किस हैसियत से अपने को आज के लोकतान्त्रिक भारत में शाही ईमाम का परिवार कहलवाता है ? क्या इस तरह की वंश परंपरा में बने हुए किसी भी ईमाम को इस्लाम में स्वीकार किया जाता है ? नहीं तभी आज के समय में मुसलमानों में इस परिवार की स्वीकार्यता बढ़ने के स्थान पर घटती ही जा रही है. इनके पूर्वजों को इनके इस्लामी ज्ञान के कारण ही जिस तरह से तत्कालीन मुग़ल शासकों ने बुखारा से लाकर दिल्ली में बसाया था उसके पीछे उनकी मंशा इस्लाम की सही रौशनी को आम मुसलमानों तक पहुँचाना था पर आज जिस तरह से ये परिवार वाद के कारण ही शाही ईमाम बनकर बैठे हैं वह उनके पूर्वजों से कहीं से भी मेल नहीं खाता है. केवल राजनैतिक दांव-पेंच के कारण ही आज इनकी मुसलमानों में पहुँच घटी है क्योंकि कोई भी धार्मिक व्यक्ति अपने धर्म के ऊंचे पदों पर बैठे लोगों को इस तरह से नेताओं के साथ सौदेबाज़ी करते हुए नहीं देखना चाहता है ?
         आज़म खान के सपा में न होने पर बुख़ारी की बातों को मुलायम ध्यान से सुना करते थे और मुलायम का आज तक का जैसा राजनैतिक सफ़र रहा है उसमें उन्होंने अपनी कही गयी बातों का हमेशा ही मान रखा है. केवल बुख़ारी के कहने से मुलायम के प्रति मुसलमानों का समर्थन घट या बढ़ नहीं सकता है क्योंकि मुलायम ने आज जो कुछ भी हासिल किया है वह उनका ख़ुद बनाया हुआ है और बुख़ारी अपने पैतृक हक़ को जताकर अपनी हैसियत को बढ़वाना चाहते हैं. ऐसा नहीं है कि देश में राजनैतिक दलों ने विभिन्न क्षेत्रों के लोगों को संसद और विधान परिषदों में नहीं भेजा है फिर भी जिस तरह से बुख़ारी ने सौदेबाज़ी शुरू की है और आज़म ने किसी भी कारण से उसका विरोध किया है उसके बाद बुख़ारी की प्रतिष्ठा को ठेस तो पहुंची ही है. इतने ऐतिहासिक स्थल पर बैठकर अगर बुख़ारी इस्लाम पर रौशनी डालने का काम ही करते रहते तो आम जैसे हज़ारों लोग उनसे मिलने के लिए घंटों इंतज़ार करते रहते पर उन्होंने जिस तरह से ख़ुद को सियासी दलदल में उतार दिया है उससे किसी का भला नहीं होने वाला है. अगर वे अपने काम को जामा मस्जिद से बैठकर ही करते रहते तो उनके एक इशारे पर ही किसी को भी कुछ देकर अपने को धन्य समझते पर जिस तरह से सौदेबाज़ी शुरू हुई है उसके बाद वे क्या हासिल कर पायेंगें यह तो समय ही बताएगा पर इससे उनके मुसलमानों के बीच उनकी छवि पर असर ज़रूर पड़ा है.           
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