देश में भ्रष्टाचार से लड़ने के नाम पर जिस तरह से सभी लोग खेमेबाज़ी पर उतर आते हैं उससे कहीं से भी देश का भला नहीं होने वाला है. आज जिस तरह से लोकपाल विधेयक लगातार चर्चा में बना रहता है उससे बहुत सारे लोगों को यह समझ ही नहीं आता कि असली मुद्दा क्या है और अब देश को क्या चाहिए ? जब कभी भी लोकपाल या भ्रष्टाचार पर चर्चा शुरू होती है तो पूरा देश जैसे दो भागों में बंटा दिखाई देता है यह सही है कि देश को भ्रष्टाचार से पूरी तरह मुक्ति मिलनी ही चाहिए पर जब भी इस मसले पर बात होती है तो केवल कांग्रेस को दोषी ठराया जाता है क्या यह भी पूरी तरह से सही है ? क्या पिछले वर्ष केंद्र सरकार ने टीम अन्ना से जिस तरह से बात शुरू की ही उसमें कोई कमी थी या टीम अन्ना को बातचीत से कभी भी सरकार का संतोष जनक रुख न मिला हो फिर आज केवल केन्द्रकी आलोचना से क्या होने वाला है ? सरकारें तो आती जाती रहेंगीं पर क्या इस तरह से देश के लिए किसी एक दल से ही आशाएं लगाना उचित है ? क्यों नहीं पूरे राजनैतिक तंत्र पर इस बात का दबाव बनाया जाता है कि वे मिलकर कुछ करें ? किसी भी स्थान पर इस मसले पर अगर कुछ भी लिखा जाता है तो वहां पर एक तरह का केवल वैचारिक आन्दोलन चलने वाले कुछ बुद्धिजीवी हमेशा ही एक तरह की टिप्पणियाँ करते हुए देखे जा सकते हैं अलग अलग स्थानों पर उनके नाम अलग हो सकते हैं पर उनकी विचारधारा एक समान ही लगती है. आज जिस तरह से भ्रष्टाचार से लड़ाई को अलग अलग नज़रिए से देखा जाने लगा है वह केवल यही दिखाता है कि देश में केवल राजनैतिक ध्रुवीकरण के साथ ही वैचारिकता बची है ? जबकि धरातल पर ऐसा नहीं है क्योंकि आज भी देश में बहुत सारे लोग लोग हैं जो केवल भ्रष्टाचार को देश के दुश्मन के तौर पर देखते हैं और उन्हें किसी भी राजनैतिक विचारधारा से कोई मतलब नहीं होता है.
आज स्थिति यह है कि भ्रष्टाचार की बातें शुरू होते ही केवल और केवल सभी के निशाने पर कांग्रेस ही आ जाती है पर क्या अन्य दलों ने भ्रष्टाचार से निपटने के लिए कुछ ठोस किया है ? जब भी जन लोकपाल की बातें हुई तो लोगों ने बहुत बड़ी बड़ी आदर्शवादी बातें की पर जब संसद में कुछ बोलने का समय आया तो सभी ऐसा लगा जैसे अन्ना अब संसद पर ही कब्ज़ा कर लेंगें ? भ्रष्टाचार पर पार्टी लाइन से हटकर सोचने की ज़रुरत है क्योंकि यह अपनी आवश्यकतानुसार हर सफल तंत्र में कुछ कमज़ोर कड़ियाँ हमेशा ही ढूंढ लेने में सफल हो जाता है. आख़िर क्या कारण है कि सत्ता के नज़दीक पहुँचते ही सभी को भ्रष्टाचारियों से सामना करना पड़ता है अगर हमें देश के बारे में सोचना है तो भ्रष्टाचार के मुद्दे पर सभी को पार्टी लाइन से दूर ही रहना होगा वरना हर किसी को अपने मनपसंद पार्टी में भ्रष्टाचार कभी भी दिखाई ही नहीं देगा और देश ऐसी ही निरर्थक बहसों में उलझा रहेगा ? क्या कारण है कि भ्रष्टाचार के मुद्दे पर कुछ भी बोलने से पहले कुछ लोग केवल यही तय कर लेते हैं कि उन्हें अब केवल कांग्रेस को ही कोसना है ? क्या देश के बुद्धिजीवियों में इतनी वैचारिक ताक़त नहीं रह गयी है कि वे केवल सही मुद्दे के कारणों को खोज सकें और उन पर अपनी राय दे सके ? क्या दुनिया को राह दिखने वाला हमारा देश वैचारिक रूप से इतना दीवालिया हो गया है कि उसे अब सही भी नहीं दिखाई देता है ? इस तरह के मुद्दों को उठाने वाले लोगों को पार्टी विशेष से ही जुड़ा हुआ मान कर राय बना ली जाती है. केवल आलोचना करना आसान है पर किसी समस्या का समाधान खोजना उतना ही मुश्किल है.
आज सभी एक सुर में यह कहने में नहीं चूकते हैं कि कांग्रेस भ्रष्टाचारियों को शरण देती है पर क्या अन्य राज्यों में अन्य दलों की सरकारें भ्रष्टाचार को दूर कर पाने में सफल हो पाई हैं ? मध्य प्रदेश में जिस तरह से खनन माफिया सरकारी अधिकारियों की जान के प्यासे हैं वह क्या है उस पर कोई कुछ नहीं कह रहा है क्या भाजपा केवल केंद्र में ही सुशासन देना चाहती है ? ओडिशा में एक संकट कम होता दिखता है तो दूसरा सर उठा लेता है छत्तीसगढ़ में फिर से एक जिलाधिकारी को अगवा कर लिया गया है ? क्या इन सभी घटनाओं के लिए किसी दल को दोषी ठराया जा सकता है ? शायद दोषारोपण करना बहुत आसान है पर कोई जाकर नवीन पटनायक और रमण सिंह से भी पूछे कि इस तरह की स्थितियों में उनके दिलों पर क्या बीत रही है ? देश में समस्याओं को ग़लत तरीके से देखने और उनसे तदर्थ तरीके से निपटने की हमारे दलों की नीतियों ने बहुत सारी समस्याओं को लगातार जन्म दिया है और किसी भी स्थिति में इस दृश्य को बदलना ही होगा. भ्रष्टाचार, कानून व्यवस्था, कृषि, विकास, विदेश नीति, ग्रामीण विकास, ऊर्जा ये कुछ ऐसे क्षेत्र हैं जिन पर अब देश को एकमत होना ही होगा क्योंकि जब तक हर एक दल अपने अनुसार इन शब्दों की व्याख्या करता रहेगा तब तक देश को ठोस नीतियाँ नहीं मिल पाएंगीं. सबसे पहले देश के राजनैतिक दलों को यह बात समझनी ही होगी कि अब कोरी भाषणबाज़ी से कोई काम नहीं चलने वाला है. कुछ लोगों को अतिवाद अच्छा लगता है तो वे चाहते हैं कि कोई विद्रोह हो जाये और सब ठीक हो जाये पर ऐसा नहीं है हमें अपनी स्थिति ठीक करने के लिए ख़ुद ही कुछ करना होगा. टीम अन्ना से शुरू हुई बातचीत के बाद पिछले वर्ष सरकार कुछ अच्छा निष्कर्ष दे सकती थी पर बीच में बाबा रामदेव की राजनैतिक महत्वाकांक्षाओं ने जोर पकड़ लिया और देश ने वह अवसर खो दिया जिसके बाद जन लोकपाल अस्तित्व में आ सकता था. आज फिर से टीम अन्ना को यह लग रहा है कि बाबा रामदेव आन्दोलन में अपनी चलने में लगे हुए हैं. अब फिर से सरकार और टीम अन्ना को फिर से बातचीत शुरू करने के प्रयास करने चाहिए क्योंकि दोनों के अपने रुख पर टिके रहने से देश का ही नुक्सान हो रहा है.
मेरी हर धड़कन भारत के लिए है...
आज स्थिति यह है कि भ्रष्टाचार की बातें शुरू होते ही केवल और केवल सभी के निशाने पर कांग्रेस ही आ जाती है पर क्या अन्य दलों ने भ्रष्टाचार से निपटने के लिए कुछ ठोस किया है ? जब भी जन लोकपाल की बातें हुई तो लोगों ने बहुत बड़ी बड़ी आदर्शवादी बातें की पर जब संसद में कुछ बोलने का समय आया तो सभी ऐसा लगा जैसे अन्ना अब संसद पर ही कब्ज़ा कर लेंगें ? भ्रष्टाचार पर पार्टी लाइन से हटकर सोचने की ज़रुरत है क्योंकि यह अपनी आवश्यकतानुसार हर सफल तंत्र में कुछ कमज़ोर कड़ियाँ हमेशा ही ढूंढ लेने में सफल हो जाता है. आख़िर क्या कारण है कि सत्ता के नज़दीक पहुँचते ही सभी को भ्रष्टाचारियों से सामना करना पड़ता है अगर हमें देश के बारे में सोचना है तो भ्रष्टाचार के मुद्दे पर सभी को पार्टी लाइन से दूर ही रहना होगा वरना हर किसी को अपने मनपसंद पार्टी में भ्रष्टाचार कभी भी दिखाई ही नहीं देगा और देश ऐसी ही निरर्थक बहसों में उलझा रहेगा ? क्या कारण है कि भ्रष्टाचार के मुद्दे पर कुछ भी बोलने से पहले कुछ लोग केवल यही तय कर लेते हैं कि उन्हें अब केवल कांग्रेस को ही कोसना है ? क्या देश के बुद्धिजीवियों में इतनी वैचारिक ताक़त नहीं रह गयी है कि वे केवल सही मुद्दे के कारणों को खोज सकें और उन पर अपनी राय दे सके ? क्या दुनिया को राह दिखने वाला हमारा देश वैचारिक रूप से इतना दीवालिया हो गया है कि उसे अब सही भी नहीं दिखाई देता है ? इस तरह के मुद्दों को उठाने वाले लोगों को पार्टी विशेष से ही जुड़ा हुआ मान कर राय बना ली जाती है. केवल आलोचना करना आसान है पर किसी समस्या का समाधान खोजना उतना ही मुश्किल है.
आज सभी एक सुर में यह कहने में नहीं चूकते हैं कि कांग्रेस भ्रष्टाचारियों को शरण देती है पर क्या अन्य राज्यों में अन्य दलों की सरकारें भ्रष्टाचार को दूर कर पाने में सफल हो पाई हैं ? मध्य प्रदेश में जिस तरह से खनन माफिया सरकारी अधिकारियों की जान के प्यासे हैं वह क्या है उस पर कोई कुछ नहीं कह रहा है क्या भाजपा केवल केंद्र में ही सुशासन देना चाहती है ? ओडिशा में एक संकट कम होता दिखता है तो दूसरा सर उठा लेता है छत्तीसगढ़ में फिर से एक जिलाधिकारी को अगवा कर लिया गया है ? क्या इन सभी घटनाओं के लिए किसी दल को दोषी ठराया जा सकता है ? शायद दोषारोपण करना बहुत आसान है पर कोई जाकर नवीन पटनायक और रमण सिंह से भी पूछे कि इस तरह की स्थितियों में उनके दिलों पर क्या बीत रही है ? देश में समस्याओं को ग़लत तरीके से देखने और उनसे तदर्थ तरीके से निपटने की हमारे दलों की नीतियों ने बहुत सारी समस्याओं को लगातार जन्म दिया है और किसी भी स्थिति में इस दृश्य को बदलना ही होगा. भ्रष्टाचार, कानून व्यवस्था, कृषि, विकास, विदेश नीति, ग्रामीण विकास, ऊर्जा ये कुछ ऐसे क्षेत्र हैं जिन पर अब देश को एकमत होना ही होगा क्योंकि जब तक हर एक दल अपने अनुसार इन शब्दों की व्याख्या करता रहेगा तब तक देश को ठोस नीतियाँ नहीं मिल पाएंगीं. सबसे पहले देश के राजनैतिक दलों को यह बात समझनी ही होगी कि अब कोरी भाषणबाज़ी से कोई काम नहीं चलने वाला है. कुछ लोगों को अतिवाद अच्छा लगता है तो वे चाहते हैं कि कोई विद्रोह हो जाये और सब ठीक हो जाये पर ऐसा नहीं है हमें अपनी स्थिति ठीक करने के लिए ख़ुद ही कुछ करना होगा. टीम अन्ना से शुरू हुई बातचीत के बाद पिछले वर्ष सरकार कुछ अच्छा निष्कर्ष दे सकती थी पर बीच में बाबा रामदेव की राजनैतिक महत्वाकांक्षाओं ने जोर पकड़ लिया और देश ने वह अवसर खो दिया जिसके बाद जन लोकपाल अस्तित्व में आ सकता था. आज फिर से टीम अन्ना को यह लग रहा है कि बाबा रामदेव आन्दोलन में अपनी चलने में लगे हुए हैं. अब फिर से सरकार और टीम अन्ना को फिर से बातचीत शुरू करने के प्रयास करने चाहिए क्योंकि दोनों के अपने रुख पर टिके रहने से देश का ही नुक्सान हो रहा है.
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