देश में जब अगले राष्ट्रपति को चुनने की उलटी गिनती शुरू हो चुकी है उस सबके बीच जिस तरह से संप्रग और राजग के सहयोगी दल कुछ मुद्दों पर अलग-अलग सुर अलापने में लगे हुए हैं उससे आने वाली राजनीति की दिशा का अंदाज़ा लगाया जा सकता है. जिस तरह से देश में गठबंधन की राजनीति हावी होती जा रही है उस स्थिति के साथ ही जीना फिलहाल नागरिकों की नियति बनती जा रही है वैसे इस तरह के गठबन्धनों से देश के जिस स्तर पर भला हो सकता था वह नहीं हो पा रहा है क्योंकि जनता राष्ट्रीय दलों द्वारा राज्यों में उपेक्षा अपनाये जाने के बाद ही इन छोटे दलों की तरफ मुड़ी है अब ये दल अपने हाथ में आये इस अवसर का जिस तरह से सौदेबाज़ी करके मूल्य वसूलने में लगे हुए हैं उससे निपटने के लिए कांग्रेस और भाजपा के पास कुछ भी शेष नहीं है क्योंकि राष्ट्रीय मुद्दों पर जब इन दोनों दलों में एकता होनी चाहिए ये तब भी केवल राजनैतिक कारणों से एक दूसरे के ख़िलाफ़ खड़े हुए नज़र आते हैं. इन दोनों दलों में इस तरह के मुद्दों पर मतभेद होने से छोटे दलों की क़ीमत वसूलने की शक्ति बढ़ जाती है और वे अनावश्यक दबाव बनाकर अपनी मांगें मनवाने की कोशिशें शुरू कर देते हैं. यह शिति लम्बे समय में देश की नीतियों को प्रभावित केबड़े नुक्सान कर सकती है.
राष्ट्रपति के चुनाव जैसे महत्वपूर्ण मामलों में इन दोनों बड़े दलों को राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति पद के लिए मिलकर सहमति से प्रत्याशी चुन लेना चाहिए जिससे छोटे दलों को इस तरह की स्थितियों में भी अनावश्यक राजनीति करने के अवसर न मिलने पायें. सभी जानते हैं कि राष्ट्रपति राष्ट्र प्रमुख होने के साथ सरकार के हाथों की कठपुतली ही होते हैं तो इस स्थिति में केंद्र में सरकार चलाने वाले दल को अपने मनपसंद व्यक्ति को इस पद पर बैठाने में ही आसानी होती है. इस बार यह पद इस लिए भी महत्वपूर्ण होने जा रहा है क्योंकि २०१४ के चुनवों में त्रिशंकु लोकसभा की स्थिति में राष्ट्रपति की स्थिति बहुत महत्वपूर्ण होने जा रही है और उस स्थिति में सभी दल अपनी तैयारियों को अभी से पूरा करके रखने को महत्वपूर्ण मानकर चल रहे हैं. देश की विदेश नीति और अन्य कई महत्वपूर्ण मुद्दों पर कांग्रेस और भाजपा का रुख लगभग एक जैसा ही है तो देश एक अन्दर होने वाले इस तरह के चुनावों में ये दल राष्ट्रहित में कुछ ऐसा क्यों नहीं करना चाहते जिससे छोटे दलों को भी यह सन्देश चला जाये कि उनकी नाजायज़ मांगों को अब ये दोनों दल बर्दाश्त नहीं करने वाले हैं. राजनीति करने के लिए बहुत सारे अवसर आगे भी आते ही रहेंगें पर देश को नीतियों के मामले में बंधक बनाने वाले इस तरह एक किसी भी प्रयास में इन दोनों दलों की देश के प्रति क्या कोई ज़िम्मेदारी नहीं बनती है ?
अगर ममता या मुलायम सोनिया से सौदेबाज़ी करने की स्थिति में हैं तो इसके लिए कांग्रेस और भाजपा द्वारा इन दलों को ज़रुरत से ज्यादा भाव दिया जाना भी एक कारण है. इस बात से कोई भी इनकार नहीं कर सकता है कि देश के पिछड़े हुए राज्यों में विकास की गति तेज़ होनी चाहिए पर उसके केवल केंद्र पर दबाव बनाना कहाँ तक और किस तरह से उचित हो सकता है ? क्या राज्यों में सरकारें सँभालने वाले दलों पर यह ज़िम्मेदारी नहीं आती है कि वे भी अपने यहाँ कार्यकुशलता बढ़ाकर और नीतियों में बदलाव करके राज्यों को अपने पैरों पर खड़े होने का प्रयास करें ? विकास के नाम पर तो सभी के साथ एक समान व्यवहार किया ही जाना चाहिए पर साथ ही केन्द्रीय सहायता मिलने पर उसका सही दिशा में उपयोग भी करने की कोशिश होती क्या दिखनी नहीं चाहिए ? अब यह सही समय है कि कांग्रेस और भाजपा इस दोनों पदों के लिए आपसी सहमति से प्रत्याशी चुन लें और इन दलों के सामने सौदेबाज़ी का कोई विकल्प न छोड़ें क्योंकि आज इन क्षेत्रीय दलों ने जिस तरह से विकास और विदेश नीति को प्रभावित करना शुरू का दिया है वह देश के लिए शुभ संकेत नहीं है और इस स्थिति को पलटने की ज़िम्मेदारी भी दोनों बड़े राष्ट्रीय दलों की ही है क्योंकि छोटे दलों की यह लालसा केवल बड़े दलों की चुप्पी पर ही मज़बूती पा रही है.
मेरी हर धड़कन भारत के लिए है...
राष्ट्रपति के चुनाव जैसे महत्वपूर्ण मामलों में इन दोनों बड़े दलों को राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति पद के लिए मिलकर सहमति से प्रत्याशी चुन लेना चाहिए जिससे छोटे दलों को इस तरह की स्थितियों में भी अनावश्यक राजनीति करने के अवसर न मिलने पायें. सभी जानते हैं कि राष्ट्रपति राष्ट्र प्रमुख होने के साथ सरकार के हाथों की कठपुतली ही होते हैं तो इस स्थिति में केंद्र में सरकार चलाने वाले दल को अपने मनपसंद व्यक्ति को इस पद पर बैठाने में ही आसानी होती है. इस बार यह पद इस लिए भी महत्वपूर्ण होने जा रहा है क्योंकि २०१४ के चुनवों में त्रिशंकु लोकसभा की स्थिति में राष्ट्रपति की स्थिति बहुत महत्वपूर्ण होने जा रही है और उस स्थिति में सभी दल अपनी तैयारियों को अभी से पूरा करके रखने को महत्वपूर्ण मानकर चल रहे हैं. देश की विदेश नीति और अन्य कई महत्वपूर्ण मुद्दों पर कांग्रेस और भाजपा का रुख लगभग एक जैसा ही है तो देश एक अन्दर होने वाले इस तरह के चुनावों में ये दल राष्ट्रहित में कुछ ऐसा क्यों नहीं करना चाहते जिससे छोटे दलों को भी यह सन्देश चला जाये कि उनकी नाजायज़ मांगों को अब ये दोनों दल बर्दाश्त नहीं करने वाले हैं. राजनीति करने के लिए बहुत सारे अवसर आगे भी आते ही रहेंगें पर देश को नीतियों के मामले में बंधक बनाने वाले इस तरह एक किसी भी प्रयास में इन दोनों दलों की देश के प्रति क्या कोई ज़िम्मेदारी नहीं बनती है ?
अगर ममता या मुलायम सोनिया से सौदेबाज़ी करने की स्थिति में हैं तो इसके लिए कांग्रेस और भाजपा द्वारा इन दलों को ज़रुरत से ज्यादा भाव दिया जाना भी एक कारण है. इस बात से कोई भी इनकार नहीं कर सकता है कि देश के पिछड़े हुए राज्यों में विकास की गति तेज़ होनी चाहिए पर उसके केवल केंद्र पर दबाव बनाना कहाँ तक और किस तरह से उचित हो सकता है ? क्या राज्यों में सरकारें सँभालने वाले दलों पर यह ज़िम्मेदारी नहीं आती है कि वे भी अपने यहाँ कार्यकुशलता बढ़ाकर और नीतियों में बदलाव करके राज्यों को अपने पैरों पर खड़े होने का प्रयास करें ? विकास के नाम पर तो सभी के साथ एक समान व्यवहार किया ही जाना चाहिए पर साथ ही केन्द्रीय सहायता मिलने पर उसका सही दिशा में उपयोग भी करने की कोशिश होती क्या दिखनी नहीं चाहिए ? अब यह सही समय है कि कांग्रेस और भाजपा इस दोनों पदों के लिए आपसी सहमति से प्रत्याशी चुन लें और इन दलों के सामने सौदेबाज़ी का कोई विकल्प न छोड़ें क्योंकि आज इन क्षेत्रीय दलों ने जिस तरह से विकास और विदेश नीति को प्रभावित करना शुरू का दिया है वह देश के लिए शुभ संकेत नहीं है और इस स्थिति को पलटने की ज़िम्मेदारी भी दोनों बड़े राष्ट्रीय दलों की ही है क्योंकि छोटे दलों की यह लालसा केवल बड़े दलों की चुप्पी पर ही मज़बूती पा रही है.
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