मेरी हर धड़कन भारत के लिए है...

शुक्रवार, 1 जून 2012

रेल दुर्घटनाएं

                            पिछले कुछ दिनों में जिस तरह से एक बार फिर से रेल दुर्घटनाओं में वृद्धि होती जा रही है उससे यही लगता है की आज रेलवे में वास्तव में उन बातों पर पूरा ध्यान ही नहीं दिया जा रहा है जिनके बिना सुरक्षित रेल परिचालन की कामना करना ही बेईमानी है ? ऐसा नहीं है की यह सब एक दिन में ही पैदा होने वाली समस्याएं हैं क्योंकि जब रेलवे को केवल एक पूर्वाग्रह से चलाया जा रहा है तो उसके कर्मचारियों से पूरी तरह से सही काम करने की आशा कैसे की जा सकती है. रेलवे जैसे व्यापक विस्तार वाले मंत्रालय को नरसिम्हा राव की सरकार के बाद से ऐसा पूर्णकालिक मंत्री मिला ही नहीं जो रेल को देश की अमानत समझे क्योंकि १९९६ के बाद से पता नहीं किस दबाव या समझौते के तहत रेलवे हमेशा क्षेत्रीय दलों के हाथों का खिलौना बनी हुई है जो की अपने घर के अन्दर तक रेल चलवाने से आगे कुछ सोच ही नहीं पाते हैं ? इस स्थिति में आख़िर इस मंत्रालय से इस बात की उम्मीदें कैसे लगायी जा सकती है की वह निष्पक्ष होकर अपना काम कर सकेगा ? क्या किसी राजनैतिक समझौते के तहत मिले रेल मंत्री के पद का दुरूपयोग इस तरह से रेलवे की सेहत बिगाड़ने के लिए किया जा सकता है ? क्या अब समय नहीं आ गया है की क्षेत्रीय रेलवे में राज्य सरकारों की भागीदारी भी बढ़ाई जाये और उनसे पहले बड़े शहरों में मेट्रो जैसी परियोजनाओं के सञ्चालन के समझौते किये जाएँ और आने वाले समय में रेलवे में अंशदान करने और लाभ में हिस्सा बंटाने की नीति लागू न कर दी जाये. हो सकता है की पूरे देश की स्थानीय राज्य सरकार की भागीदारी से रेलवे को वास्तविक स्थिति में लाभकारी और सामजिक दोनों स्तरों पर काम करने के अवसर मिल जाएँ ?
      संरक्षा और परिचालन से जुड़े मसलों में कितनी अनदेखी हो रही है इस बात का अंदाज़ा तब लगा जब हम्पी एक्सप्रेस दुर्घटना ग्रस्त हो गयी क्योंकि उस ट्रेन के ड्राईवर ने कई दिनों की लगातार ड्यूटी की हुई थी ? नईदिल्ली हावड़ा के मार्ग पर कानपुर सबसे व्यस्त माना जाता है और यहाँ के ड्राईवर किन हालातों में ड्यूटी कर रहे हैं इस बारे में कल ही एक प्रमुख राष्ट्रीय दैनिक ने विस्तार से एक खबर छपी है जिससे वास्तविक स्थिति का अंदाज़ा हो जाता है की जिन लोगों पर सैकड़ों लोगों को सुरक्षित गंतव्य तक पहुँचाने की ज़िम्मेदारी है वे उतना आराम भी नहीं कर पा रहे हैं जितना एक मनुष्य होने के नाते उन्हें मिलना ही चाहिए ? खुद रेलवे ने भी इस मामले में कुछ नियम बना रखे हैं पर आज उनकी खुलेआम अवहेलना हो रही है ? जब पूरे देश में व्यस्त मार्गों का यह हाल है तो आगे की बात खुद ही समझ में आ जाती है. दिल्ली हावड़ा का मार्ग वह मार्ग है जिस पर पिछले १६ वर्षों से रेल मंत्रियों का दबदबा रहा है फिर भी वे केवल अपने हितों के अलावा कुछ भी सोच नहीं सके हैं इसके लिए किसे ज़िम्मेदार ठहराया जाये ? दिल्ली से बिहार और बंगाल को जाने वाली अधिकांश गाड़ियाँ कानपुर से होकर ही जाती हैं फिर भी इस मार्ग के बारे में उतना नहीं हो सका जितना हो जाना चाहिए था क्या इसके लिए पिछले रेल मंत्रियों से सवाल नहीं पूछे जाने चाहिए ?
      अब समय है की रेल को चलाने के लिए कम से कम ५ मंत्रियों की नियुक्ति की जाये क्योंकि जितने बड़े स्तर पर यहाँ पर फैसले करने होते हैं उनमें एक मंत्री के लिए इन सब बातों से न्याय कर पाने की उम्मीद ही करना बेईमानी है. रेल को किसी नेता के हठ के कारण इस स्थिति में नहीं पहुँचाया जा सकता है की वहां से किसी भी तरह से वापसी न की जा सके ? आज ये नेता हैं कल इनके हाथ में सत्ता नहीं होगी तब भी रेलवे को देश के लिए चलना ही होगा तब रेलवे की इस दुर्दशा के लिए किसी ज़िम्मेदार ठहराया जायेगा ? इस तरह के मंत्रालयों में बैठने वाले नेताओं के लिए उच्च आदर्शों का होना ज़रूरी है क्योंकि रेलवे को हर काम खुद ही करना होता जबकि अन्य मंत्रालयों में योजनाओं को लागू करवाने के लिए राज्य सरकारें भी आगे आकर काम करती हैं जबकि रेल के हर निर्णय केवल मंत्री स्तर से करवाने को आज भारतीय राजनीति में अपने प्रभाव को दिखाने का साधन बन चुका है. लालू और ममता जो गरीबों के हितैषी होने का दम भरते हैं क्या वे इस बात का जवाब दे पायेंगें की उनकी गलत नीतियों के कारण जो कुछ भी रेलवे का नुकसान हो गया है उससे लाखों रेलवे कर्मचारियों के परिवारों पर आने वाले समय में जो प्रभाव पड़ेगा उसकी भरपाई कौन करेगा ?    

 
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