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मंगलवार, 19 जून 2012

ममता और संप्रग

      पिछले कुछ समय से ममता और कांग्रेस में कुछ मुद्दों पर गंभीर मतभेद देखने को मिलते रहे हैं और इस सबसे ऊपर राष्ट्रपति चुनाव में जिस तरह से ममता ने अपने कुछ क़दमों से संप्रग सरकार को कमज़ोर साबित करने की कोशिश की उससे यही लगता है कि उनके पास सरकार चलाते हुए किस तरह से अपने व्यवहार को संतुलित रखा जाये इस बात का अनुभव अभी भी नहीं है. यह सही है कि वे अपनी शर्तों पर काम करती हैं पर ऐसी शर्तें किस काम कीई हो सकती है जो कहीं न कहें उनके राजनैतिक हितों पर भी चोट कर जाती हों ? ममता के साथ भी वही समस्या है जो मायावती के साथ है क्योंकि ये दोनों ही नेता अपने दम पर इतने आगे तक बढ़े हैं तो इससे इनको यही लगता है कि वे जो कुछ भी करते हैं वह ही सही है जबकि कई बार इनके आंकलन ग़लत भी साबित हो चुके हैं. इस स्थिति में अब ममता को अपने रुख में राजनीति के अनुसार परिवर्तन करने की आदत तो डालनी ही होगी क्योंकि उनके इस तरह के व्यवहार से केंद्रीय सरकार की साख़ पर बट्टा भी लगता है जो कहीं न कहीं से सरकार के काम काज पर भी असर डालता है. 
     कोलकाता में अपनी पार्टी की बैठक में जिस तरह से उन्होंने एक बार फिर से वही बात दोहराई कि वे संप्रग का हिस्सा हैं और सरकार को गिरना भी नहीं चाहती हैं उससे यही लगता है कि वे अभी संप्रग छोड़ना नहीं चाहती हैं पर साथ ही कांग्रेस पर दबाव बनाये रखने की राजनीति भी करते रहना चाहती हैं ? अभी तक कांग्रेस के पास इस बात की मजबूरी थी कि ममता के बाहर जाने पर संप्रग में उनकी जगह पर कौन इतना विश्वसनीय सहयोगी होता पर मुलायम की यूपी की आवश्यकताओं ने फिलहाल कांग्रेस के काम को आसान कर दिया है. कहने को कोई कुछ भी कहता रहे कि मध्यावधि चुनावों की सम्भावना नज़र आ रही है पर उससे बड़ी बात यह है कि खुद मुख्य विपक्षी दल भाजपा भी अपने को अभी चुनाव के लिए तैयार नहीं पा रही है ? ऐसे में किसी भी दल के लिए सरकार गिराने की बात करना ठीक और आसान नहीं लग रहा है इसलिय भी अभी संप्रग सरकार के लिए किसी भी स्तर पर कोई बड़ी दिक्कत नहीं दिखाई देती है. 
     ममता को अब यह समझ लेना चहिये कि आज कांग्रेस के सामने उन्होंने इतना कुछ करके विकल्प छोड़े ही नहीं है तो उस स्थिति में अब राष्ट्रपति चुनाव होने तक या फिर मनमोहन सिंह के विदेश से वापस आने के बाद होने वाले संभावित मंत्रिमंडल फेरबदल में उनकी ताकत में भी कमी आ सकती है क्योंकि जिस तरह से गठबंधन की बातों और समझौते की मर्यादाओं को ममता ने कई बार लांघा है और कांग्रेस ने उन्हें हर बार अनदेखा भी किया है पर इस बार कांग्रेस भी उन्हें इस तरह के व्यवहार की कीमत चुकाने को कहने की स्थिति में है और जब तक ममता अपने रुख को एक स्तर तक स्थिर नहीं कर लेती हैं तब तक कांग्रेस उनसे किस तरह से पेश आने वाली है इस बात का अंदाज़ा भी अब ममता को हो गया है. ममता के संप्रग से बाहर जाने का मतलब वाम दलों का खुला समर्थन कांग्रेस और संप्रग को मिल जाने वाला है और बंगाल में वाम दलों से ज़मीनी स्तर पर उनसे निपटने के लिए अभी ममता को कांग्रेस की सख्त ज़रुरत है और यह बात बंगाल कांग्रेस ने ममता पर दबाव बनाकर केन्द्रीय नेतृत्व को समझा भी दी है. फिलहाल ममता संप्रग में तो हैं पर उनकी ताक़त निश्चित तौर पर इस प्रकरण के बाद कम होने वाली है.   
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