मेरी हर धड़कन भारत के लिए है...

शुक्रवार, 24 अगस्त 2012

संसद और गतिरोध

                       कोयले आवंटन मुद्दे पर जिस तरह से इस पूरे हफ्ते गतिरोध के चलते संसद में कोई काम होने की संभाना नहीं दिखाई दे रही है वह भारतीय लोकतंत्र के लिए कोई शुभ लक्षण नहीं है क्योंकि तुच्छ राजनीति के लिए हमारे राजनैतिक दल पहले से ही संसदीय परम्पराओं को तक पर रखने में नहीं चूकते हैं और इस तरह से संसद को बंधक बनाकर आख़िर देश और दुनिया को हमारे सभी राजनैतिक दल क्या संदेश देना चाहते हैं ? क्या जितने दिनों तक काम नहीं हो रहा है उसका वेतन न लेकर हमारे संसद कोई नयी शुरुआत करेंगें या फिर से हर मामले पर मतभिन्नता दिखाने में माहिर माननीय लोग चुपचाप अपने वेतन- भत्तों और सुविधाओं में सर्व सम्मति से संशोधन कर लेंगें ? देश को ज्वलंत मुद्दों पर संसद के अन्दर बहस चाहिए क्योंकि वही एक मात्र ऐसी जगह है जहाँ पर हमारे नेताओं पर नैतिकता का अंकुश कुछ हद तक काम करता है भले ही दिखावे के लिए ही सही पर वहां पर संसदीय परम्पराओं का अनुपालन करने में सभी में होड़ सी लगी रहती है ? इस स्थित का लाभ उठकर संसदीय मर्यादाओं और परम्पराओं का अनुपालन करना चाहिए न कि इस तरह के गतिरोध के बाद सभी आवश्यक विधायी कार्यों में बाधा पहुंचानी चाहिए ? 
            सरकार/ पीएम की नाक़ामी या नियमों में समय रहते सुधार न कर पाने से अगर देश के संसाधनों को नुकसान पहुंचा है तो इसके लिए पूरी तरह से सरकार को ही ज़िम्मेदार ठहराया जाता है पर भारतीय लोकतंत्र में जिस तरह से अधिकांश विभागों की संसदीय समितियां होती हैं और वे निरंतर अपने विभागों के कार्यों में नज़र रखती हैं जिसमें सभी दलों के सांसदों को उचित प्रतिनिधित्व मिलता है तो फिर २००५ से आज तक किसी भी दल ने इस कोयले के मसले को सदन या समिति में क्यों नहीं उठाया ? इसका अर्थ क्या लगाया जाये कि जिन लोगों को लाभ पहुँचाने का आरोप आज विपक्ष सरकार पर लगा रहा है उनको सभी दलों के हमारे सांसदों ने मिलकर लाभ पहुँचाया है या फिर हमारी संसदीय समितियों की बैठकों को हमारे सांसद केवल एक बैठक ही समझते हैं और उसके कामकाज उससे आगे की बातों पर कभी कोई ठोस विचार नहीं करते हैं ? अगर सदन में बनाई गयी इन समितियों के काम करने का तरीका यही है तो फिर इनकी क्या आवश्यकता है और आख़िर किस काम को संपन्न करने के लिए इनका गठन किया जाता है ? जब ये अपने सम्बंधित विभाग के बारे में ही कुछ सही ढंग से नहीं कर सकती हैं तो आख़िर इन्हें केवल सांसदों के अहम् को संतुष्ट करने के लिए बनाये जाने की क्या आवश्यकता है ?
         वर्तमान गतिरोध में जिस तरह से भाजपा और कांग्रेस की लड़ाई में बदल चुके इस मुद्दे को आख़िर किस तरह से सुलझाया जाये यह अब किसी को भी समझ में नहीं आ रहा है क्योंकि भाजपा को पीएम का इस्तीफ़ा चाहिए और कांग्रेस को बहस ? आख़िर संसद में सार्थक और ठोस बहस के दौरान भाजपा पीएम का इस्तीफ़ा मांगने के स्थान पर हंगामा करके क्या हासिल करना चाहती है ? कांग्रेस समेत सभी को पता है कि कैग का यह एक अनुमान है और वास्तविक धरातल पर इन कोल ब्लाकों से अभी उत्पादन उतने स्तर पर शुरू ही नहीं हुआ है जिसका अंदाज़ा रिपोर्ट में लगाया गया है ? आवंटन के समय भाजपा शासित कई राज्यों के मुख्यमंत्रियों ने भी नीलामी प्रक्रिया का विरोध और आवंटन का समर्थन किया था अब भाजपा को आशंका है कि बहस होने पर सरकार की तरफ़ से उसके मुख्यमंत्रियों द्वारा भेजे गए अधिकारिक विरोधों को भी सरकार संसद में रखेगी जिससे उसकी स्थिति भी असहज हो जाएगी ? अगर नीलामी की प्रक्रिया अपनाये जाने की बात से देश को राजस्व मिलना था तो भाजपा के मुख्यमंत्री आख़िर क्यों देश का नुकसान चाहते थे ? इस मामले में उस समय कोयला मंत्रालय का ज़िम्मा संभाले पीएम अपनी ज़िम्मेदारी से बच नहीं सकते हैं पर केवल राजनीति के लिए इस तरह की बातें करने के स्थान पर नयी और अच्छी नीतियां बनाये जाने के बारे में संसद में बहस की जानी ही चाहिए और आगे होने वाले राजस्व को देश के खज़ाने तक पहुँचाने के प्रयास होने चाहिए.   
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