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रविवार, 16 सितंबर 2012

अराजकता और कानून

                 यूपी में सपा की सरकार आने के बाद से जिस तरह से वर्ग संघर्ष बढ़ा है उससे यही लगता है कि या तो सरकार उपद्रवियों से निपटने के लिए कुछ ठोस करना नहीं चाहती या फिर उसे केवल २०१४ के चुनाव ही दिखाई दे रहे हैं जिनके भरोसे वह दिल्ली में सत्ता की चाभी अपने हाथ में रखना चाहती है. सपा के बारे में वैसे भी यह कुख्यात रहा है कि उसके शासन में कानून व्यवस्था में ढीलापन देखा जाता है जिस कारण से आम लोगों को तो परेशानी होती ही है पर सबसे बड़ी कमी यह होती है कि प्रदेश कि साख को बट्टा लगता है जिसकी भरपाई कभी भी सपा नहीं कर पायेगी. मसूरी-डासना (गाज़ियाबाद) की ताज़ा घटनाओं में तो पुलिस की अकर्मण्यता ही सामने आई है क्योंकि जिस तरह से लखनऊ दिल्ली राष्ट्रीय राजमार्ग पर आने जाने वाले लोगों पर हमला बोला गया उन पर गोलियां चलायी गयीं और पुलिस केवल तमाशबीन बनकर उपद्रवियों के सामने गिड़गिडाती रही उससे क्या प्रदेश पुलिस के मनोबल और कानून व्यवस्था के प्रति अन्य प्रदेश के लोगों को सही संदेश जा पायेगा ? गाज़ियाबाद और उसके आस पास जिस तरह से औद्योगिककरण बढ़ रहा है उस स्थित में दिल्ली के पास उद्योग लगाने की इच्छा रखने वाले किसी भी उद्योगपति को आख़िर किस दम पर अखिलेश सरकार प्रदेश में बुला पायेगी  ? 
      मेरठ के डीआईजी ज़की अहमद ने जिस तरह से बताया कि उपद्रवियों ने जब थाने में आग लगाकर गोलियां चलायीं तब तक पुलिस चुप रही और शांति बनाये रखने की अपील करती रही पर जब राजमार्ग पर लोगों को मारा जाने लगा और गोलियां चलायी जाने लगीं तब पुलिस ने शासन के निर्देश पर गोलियां चलायीं इससे पहले क्या शासन से गोली न चलने के निर्देश मिले हुए थे भले ही स्थिति कितनी ही क्यों न बिगड़ जाये ? क्या यह स्थानीय पुलिस और प्रशासन की ज़िम्मेदारी नहीं बनती थी कि जब थाने में आग लगा दी गयी थी तब भी क्या स्थिति नियंत्रित करने के लिए शासन के किसी ढीले ढाले निर्देश की आवश्यकता थी ? क्या किसी अन्य मामले में पुलिस इतनी देर तक अपने पर नियंत्रण रख पाती है और कार्यवाही करने से बचती रहती है शायद नहीं क्योंकि कई बार इस तरह के उपद्रवों में सपा के लोग ही शामिल होते हैं और जिले की पार्टी के दबाव में पुलिस प्रशासन कभी भी निष्पक्ष होकर काम नहीं कर पाता है. क्या इस तरह के उपद्रवों से निपटने के लिए सरकार के पास लखनऊ या मंडल स्तर पर कोई नियंत्रण कक्ष है जहाँ से स्थिति पर उच्च अधिकारी सीधे ही नज़र रख सकें ? आख़िर सरकार किस बात की प्रतीक्षा कर रही है और अब जिस तरह से सरकार का रवैया चल रहा है तो उससे उसकी २०१४ में आने आने वाले आम चुनावों की संभावनाओं को तगड़ा झटका लगने वाला है क्योंकि इस तरह से बिना कारण ही सामाजिक विद्वेष भड़काने पर सरकार के चुप रहने के रवैये से कहीं न कहीं भाजपा को ही स्वतः लाभ होने वाला है और जिन लोगों ने माया सरकार हटाने में सपा को वोट दिया था अब वे इन कारणों से सपा से दूर भी जा सकते हैं.
            सवाल यहाँ पर किसी एक घटना का नहीं वरन पूरी मानसिकता का है क्योंकि अगर देखा जाये तो राजमार्ग पर आने जाने वालों की क्या ग़लती थी क्या उन्होंने किसी की भावनाओं को ठेस पहुंचाई थी और उपद्रवी इस तरह की नीच मानसिकता दिखाकर पूरे प्रदेश में अराजकता का माहौल आख़िर क्यों बनाना चाहते हैं ? देश के कानून के अनुसार सभी को सम्मान से जीने का हक़ है पर किसी भी निर्दोष पर हमला करके अपनी खिन्नता दर्शाने को आख़िर किस तरह से उचित ठहराया जा सकता है ? जब सरकार को पता है कि मुस्लिम समाज में धर्मग्रन्थ के साथ किसी भी तरह के दुर्व्यवहार पर स्थिति तेज़ी से बिगड़ सकती है तो उसके अधिकारी इस तरह की घटनाओं में ख़ामोश रहने के स्थान पर तेज़ी से काम करके दोषियों को सजा दिलवाने का काम क्यों नहीं करते हैं ? क्यों स्थिति को इस हद तक बिगड़ने दिया जाता है कि निर्दोषों की जाने चली जाएँ और समरसता के साथ जी रहे लोगों के लिए संदेह के साथ जीने के कारण बन जाएँ ? अखिलेश सरकार से जब लखनऊ में १७ अगस्त को सरकार की नाक के नीचे धार्मिक उपद्रवी संभाले नहीं गए तो धर्म के नाम पर अराजकता फ़ैलाने वालों को यह सरकार कैसे रोकना चाहती है उसी दिन स्पष्ट हो गया था. इस मसले पर सरकार को केवल वोट चाहिए भले ही वे निर्दोषों की लाशों पर ही क्यों न मिल रहे हों मुस्लिम समाज को अब अपने धर्मगुरुओं के साथ मिलकर ऐसे किसी भी मामले में दोषियों के ख़िलाफ़ कार्यवाही की मांग करनी चाहिए और सार्वजनिक रूप से अपने विरोध को प्रदर्शित करने के दौरान निर्दोषों के अधिकारों का भी ध्यान रखना चाहिए.        
     
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