मेरी हर धड़कन भारत के लिए है...

शनिवार, 15 सितंबर 2012

संप्रग और विकल्प

          बहुत सारे मोर्चों पर घिरी हुई संप्रग सरकार ने आख़िर में अपने अकर्मण्य होने के ठप्पे को हटाने का काम जिस तेज़ी से शुरू किया है उससे सभी राजनैतिक दल हैरत में हैं क्योंकि अभी तक जिन फ़ैसलों को केवल यह कहकर नहीं लिया जा पा रहा था कि सरकार के सहयोगी दल इसके पक्ष में नहीं है उन्हीं विवादित फ़ैसलों को लेने में सरकार ने एकदम से तत्परता दिखाई है इससे यही लगता है कि सरकार ने अब यह तय कर लिया है कि चाहे कुछ भी हो पर अब यह अकर्मण्यता का ठप्पा हटाकर ही वह अगले चुनावों में जाना चाहती है. यह सही है कि किसी भी तरह से पूरे विश्व में होने वाले परिवर्तनों के ख़िलाफ़ जाकर कोई भी सरकार या देश अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर टिक नहीं सकता है फिर भी देश के राजनैतिक दल केवल कुछ स्वार्थी दबावों के कारण ही नीतियों में परिवर्तन करने के विरोधी रहे हैं अगर ज़मीनी स्तर पर देखा जाये तो इस बात से आम लोगों और किसानों का सबसे अधिक लाभ होने वाला है क्योंकि अगर विदेशी पूँजी निवेश को ५१ प्रतिशत कर दिया जायेगा तो उससे किस तरह से सब कुछ ख़त्म हो जायेगा यह बताने के लिए कोई भी तैयार नहीं है. खुदरा क्षेत्र में कुछ प्रतिबंधों के साथ पंजाब में वालमार्ट भारती समूह के साथ काम कर रही है और वहां पर इसे कच्चा माल सप्लाई करने वाले किसानों पर किस तरह का प्रभाव पड़ा है यह सभी जानते हैं ? अगर यह काम इतना ग़लत है तो पंजाब में अकालियों का सहयोग कर रही भाजपा ने इस बारे में अब तक कोई कदम क्यों नहीं उठाया है और सरकार से समर्थन क्यों वापस नहीं लिया है ? अब राज्य सरकारों को ही यह तय करना है कि वे अपने यहाँ किस तरह से पूँजी निवेश को बढ़ावा देकर आगे आती हैं. 
                   जिस तरह से भारत में खुदरा व्यापार असंगठित क्षेत्र में है अगर उसको संगठित कर दिया जाये तो आने वाले समय में भारत के कुछ ब्रांड खुद ही इतने सक्षम हो जायेंगें कि उनकी अनदेखी कर पाना किसी के बस की बात नहीं रहेगी. किसानों के हितों का रोना रोने वाले आज यह भूल जाते हैं कि देश में मौजूदा व्यवस्था के कारण ही किसान को उसकी फ़सल का सही मूल्य नहीं मिल पाता है जिससे देश भर में किसानों की स्थिति बहुत ख़राब होती चली जा रही है किसी अनदेखे डर के कारण ही हम आज होने वाले परिवर्तनों से कब तक दूर रह सकते हैं ? भारत में जिस तरह से भौगोलिक व्यापकता है उस स्थिति को देखते हुए आज भी कोई विदेश कम्पनी यहाँ आकर उस तरह से काम नहीं कर सकती है जैसा यहाँ के व्यवसायी कर सकते हैं. सरकारी नीतियों में इस तरह के बड़े बदलाव को अपने हक में मोड़ने का हुनर हम भारतीयों को बहुत अच्छे से आता है और एक बार यदि सही नीतियां हों और अवसर हमारे हाथ में आ जाये तो पूरी दुनिया को चौंकाने का दम हर भारतीय में है. विदेश पूँजी निवेश से केवल रोज़गार के अवसर ही नहीं खुलेंगें पर साथ ही देश की अर्थ व्यवस्था में भी बहुत बड़ा परिवर्तन किया जा सकेगा. १९९१ में अल्पमत की नरसिंह राव सरकार ने जब इस तरह के परिवर्तन किये थे तो इन्हीं दलों ने उन पर देश को बेच लेने का आरोप लगाया था पर आज उससे क्या हुआ यह एक स्वर्णिम इतिहास बन चुका है. १९८४ में राजीव गाँधी के कम्प्यूटरीकरण पर ज़ोर देने को इन्हीं दलों ने उपहास का विषय बनाया था पर उस समय लिए गए निर्णयों के कारण ही विप्रो, टीसीएस, सत्यम जैसी कम्पनियों का उदय हुआ था जिनकी तकनीकी दक्षता का लोहा आज भी दुनिया मानती है.
           यह भी सही है कि नीतियों में परिवर्तन करने के बाद जिस तरह से सरकारें कान में तेल डालकर बैठ जाती हैं वह कई तरह की समस्याएं खड़ी कर देता है क्योंकि किसी भी बड़े नीतिगत परिवर्तन से होने वाले प्रभाव का सतत आंकलन करने के लिए हमें निरंतर प्रयत्नशील रहना ही चाहिए जिससे देश पर पड़ने वाले किसी भी कुप्रभाव को समय रहते भांपा जा सके. आज देश में वैचारिक मतभिन्नता से कोई समस्या नहीं है असली समस्या राजनेताओं के दोहरे चरित्र से होती हैं क्योंकि देश के दूसरे सबसे बड़े दल भाजपा द्वारा नीतिगत तौर पर विनिवेश और विदेशी पूँजी निवेश जैसे मुद्दों से सहमत होते हुए भी जिस तरह से विपक्ष में होने पर विरोध किया जाता है उससे देश का बहुत नुक्सान होता है. सार्वजनिक क्षेत्र की कम्पनियों के विनिवेश का भाजपा अपनी नीतियों में समर्थन करती है पर जब इस पर संसद में बहस होने का समय आता है तो वह विरोधी स्वर अपना लेती है. राजग सरकार के समय ही कितने बड़े स्तर पर कांग्रेस द्वारा पूँजी विनिवेश के लिए खोले गए मार्ग को अपनाकर बड़े स्तर पर पूँजी जुटाने का काम सरकार ने किया था और यदि किसी समय भविष्य में भाजपा सरकार में होगी तो खुदरा क्षेत्र में विदेशी पूँजी निवेश खुलने की नीति का वह सबसे अधिक लाभ उठाने वाली है ? आख़िर फिर ऐसा क्यों है कि बड़े नीतिगत मुद्दों पर देश में कोई आम सहमति नहीं बन पाती है जबकि सरकार के पास नीतियों में परिवर्तन करने का अवसर हमेशा ही रहता है. चीन ने डब्ल्यूटीओ में बहुत देर से प्रवेश किया था पर वहां पर नीतियों को सही ढंग से और बिना किसी अनावश्यक विरोध के लागू क्या गया जिससे आज वह पूरी दुनिया में हर तरह के माल को बनाकर देने की स्थिति में है और अपनी आर्थिक स्थिति को सुदृढ़ करने में लगा हुआ है. वामपंथियों के पास इस बात का कोई जवाब नहीं है कि जो काम चीन में सही है वह भारत में ग़लत कैसे हो सकता है ? पर भारत में नेता इस तरह एक दूसरे की टांग खींचकर अपने राजनैतिक हितों को साधने में लम्बे समय से देशहित को क़ुर्बान करने में लगे हुए हैं कभी कांग्रेस तो कभी भाजपा की अगुवाई में देश नीतिगत मुद्दों पर रोज़ ही पिछड़ता जा रहा है.          
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