मेरी हर धड़कन भारत के लिए है...

शुक्रवार, 21 सितंबर 2012

बंद और सरकार

                सरकार की कथित जनविरोधी नीतियों के विरोध में जिस तरह से देश के अधिकांश दल कल के भारत बंद में शामिल हुए और उसके बाद इस बंद के समर्थकों को सरकार ने भी जिस तरह से शाम तक विदेशी पूँजी निवेश पर अधिसूचना जारी कर अपनी मंशा बता दी उससे यही लगता है कि अब शायद सरकार ने आर्थिक सुधार के मुद्दे पर किसी भी दल के सामने अनावश्यक रूप से न झुकने की नीति अपना ली है. यह सही है कि पिछले कुछ दिनों में सरकार द्वारा लिए गए फैसलों से लम्बे समय में देश को क्या लाभ या हानि होगी इसका केवल अनुमान ही लगाया जा सकता है पर जिस तरह से केवल विरोध के लिए ही विरोध करने को एक साधन बनाया जा रहा है उसका कोई औचित्य नहीं है. लोकतंत्र ने देश के सभी राजनैतिक दलों को अपनी बात रखने के लिए पूरा हक़ दे रखा है और जनता को अपनी पसंद के अनुसार शासन चलाने वाले दलों का चुनाव करने का अवसर भी दिया हुआ है जिससे सभी को काम करने केलिए सामान अवसर मिल सकें. दुर्भाग्य से अभी तक हमारे देश में अभी तक चुनाव पूर्व जारी किये जाने वाले घोषणापत्रों को संजीदगी दे नहीं लिया जाता है जिस कारण भी कई बार चुनाव के समय उन बातों पर कोई भी दल कुछ नहीं कहता है जिनकी देश को चलाने के लिए नीतियों के रूप में आवश्यकता होती है ? हमारे नेता आज भी धर्म, जाति, वर्ग और भाषा की राजनीति कर वोट बटोरने का काम किया करते हैं जिससे देश का बहुत नुकसान होता रहता है.
             विपक्ष को अब अपनी नीति पर अड़े रहने चाहिए और साथ ही सरकार को भी अपनी नीतियों में बदलाव की घोषणा के बारे में तेज़ी से काम करना चाहिए क्योंकि देश ने विकास के नाम पर जिस तरह का कचरा इकठ्ठा किया है उससे भी पार पाने की आवश्यकता है. देश का यह दुर्भाग्य है कि जब नीतियों के निर्धारण के लिए संसद चलती है तो उसका बहिष्कार विपक्ष द्वारा किया जाता है और वहीं पर सरकार को भी नीतिगत घोषणाएं करनी चाहिए तो वह भी इसे संसद के स्थान पर संवाददाताओं के सामने करने में अपने को सहज महसूस करती है ? अगर सारे फ़ैसले सड़क पर और संवाददाताओं के सामने ही लिए जाने हैं तो साल में कई बार संसद चलाने का नाटक करने की क्या आवश्यकता है क्योंकि यदि सासंदों को अपने वेतन भत्ते बढ़ाने के लिए ही संसद की आवश्यकता है तो वह के अधिसूचना के ज़रिये भी बढ़ाये जा सकते हैं फिर इसके लिए संसद की कार्यवाही चलाने का ढोंग करने और करोड़ों रूपये फूंकने का क्या औचित्य है ? अब नियमों में संशोधन होना ही चाहिए और बिना उपयुक्त कारण ९०% से कम उपस्थिति वाले संसद सदस्यों की सुविधाओं में ९०% की कटौती की जानी चाहिए जिससे कम से कम आर्थिक हानि के चलते ये संसद में जाना तो शुरू कर सकें और देश के लिए मजबूरी में ही सही कुछ सार्थक बहस भी कर सकें ? जब सदन में जाकर ये लोग बैठना शुरू करेंगें तो कुछ काम भी अवश्य ही होने लगेगा और जिस तरह से संसद को ठप किया जाता है वह काम भी आसानी से नहीं हो पायेगा.
           सरकार को अपने पक्ष को मजबूती से रखना चाहिए क्योंकि वर्तमान में जो नीतियां सामने आ रही हैं वह नीतियों का मूल स्वरुप नहीं है और सरकार ने विवादों से बचने के लिए ही खुदरा बाज़ार में विदेशी पूँजी निवेश के मुद्दे को राज्य सरकारों पर छोड़ दिया है. प्रमुख विपक्षी दल भाजपा को भी यह बताना ही होगा कि अगर वह विदेशी पूँजी निवेश को सही नहीं मानती है तो उसके द्वारा शासित गुजरात में वहां के मुख्यमंत्री खुद ही क्यों इस तरह के आर्थिक सुधारों के जनक बने हुए हैं और पिछले कुछ वर्षों से गुजरात सरकार ने जिस तेज़ी से पूँजी को आकर्षित किया है उससे गुजरात का क्या नुकसान हुआ है ? क्या हमारा ख़ुद पर से विश्वास इतना डिग गया है कि हम हर नीति में केवल ख़ामियां ही देखने में लगे हुए हैं आख़िर कब तक सरकार के पीछे खड़े होकर हमारे उद्योगपति अपनी रक्षा कर पायेंगें और कब तक सरकार भी उनके लिए इस तरह का कृत्रिम सुरक्षा घेरा बनकर खड़ी रहेगी ? नीतियों में दम होना चाहिए और उस पर अमल करने वाली इच्छाशक्ति होना आज देश के लिए सबसे महत्वपूर्ण है. हमारे जो उद्योगपति विदेशों में काम करना चाहते हैं क्या उसके लिए भी और अवसर खोलने की ज़रुरत नहीं है ? हर नीति में ख़ामियां होती है और हर मुद्दे के दो पहलू होते हैं अब यह हम पर निर्भर करता है कि हम समय रहते नीतियों को बदल सकते हैं या फिर जब नीतियों को बदले बिना हमारा काम चलना बंद हो जाये हम तब कुछ करना चाहते हैं ? इच्छा से और बदलाव करने के माहौल में किये गए फ़ैसले सदैव मजबूरी में किये गए फैसलों से अधिक कारगर और आत्मविश्वास को बढ़ाने वाले होते हैं.     
मेरी हर धड़कन भारत के लिए है...

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