मेरी हर धड़कन भारत के लिए है...

शुक्रवार, 28 सितंबर 2012

फार्मा नीति और चोर बाज़ारी

                 मंत्रियों के समूह ने आख़िर में लम्बे विचार विमर्श के बाद नयी फार्मा नीति के बारे में सहमति दे दी है जिसके बाद इसे विचार के लिए कैबिनेट में रखा जायेगा जहाँ पर इसे मंज़ूरी मिल जाने की पूरी सम्भावना है. अभी तक जिस तरह से पेटेंट और अन्य कानूनों के चलते जहाँ दवाओं के मूल्य बाज़ार में अंतर के साथ दिखाई देते थे अब सरकार ने इस इस बारे में भी विचार करके यह तय किया है कि इनमें समानता लायी जाये और नियंत्रित मूल्य वाली दवाओं की संख्या में भी वृद्धि की जाये जिससे आम लोगों को आवश्यक दवाएं उनके सही मूल्य पर मिल सकें. अभी तक केवल ७४ दवाओं के मूल्य को ही नियंत्रण में रखा गया है जिसमें से लगभग आधी आज प्रयोग में नहीं है तो ऐसे में इस तरह के नियंत्रण की क्या आवश्यकता है जब आवश्यक दवाओं पर कोई नियंत्रण ही न हो ? अब सरकारी मंशा के अनुसार ३४८ दवाओं को मूल्य नियंत्रण के अंतर्गत रखा जायेगा जिससे आम लोगों को यह दवाएं नियंत्रित मूल्य पर मिल सकेंगीं जिसका आम लोगों को  निश्चित तौर पर लाभ होगा पर केवल कानून बना देने से ही सब कुछ नहीं हो जाता है आज सरकार को इसके अनुपालन के बारे में भी विचार करना चाहिए जिससे उसकी मंशा का धरातल पर कुछ असर भी दिखे.
        मूल्य नियंत्रित करने की सरकारी मंशा पर दवा कम्पनियां किस तरह से पानी फेर सकती हैं उसक एक उदाहरण डाक्सीसायक्लिन नामक एक एंटीबायोटिक से देखा जा सकता है. पहले यह दवा मूल्य नियंत्रण में नहीं थी तब इसे १ रु० से लेकर ७ रु० तक बाज़ार में विभिन्न कम्पनियों द्वारा बेचा जाता था पर कुछ वर्षों पहले इसे नियंत्रित मूल्य वाली सूची में डाल दिया गया और इसका अधिकतम मूल्य १ रु० तय कर दिया गया जिसके बाद से इसका बाज़ार एकदम से बहुत बढ़ा पर बढ़ते बाज़ार में लाभ कमाने के लिए काम करने वाली दवा कम्पनियों को यह लगा कि यदि यह दवा मूल्य नियंत्रण से बाहर हो जाये तो उनका मुनाफ़ा बहुत बढ़ सकता है. सरकारी नियमों के तहत वे इसे १ रु० से अधिक का नहीं बेच सकते थे इसलिए उन्होंने एक चोर रास्ता निकला और इसमें १ रु० से भी कम मूल्य में उपलब्ध अन्य दवा लैक्टोबैसिलस मिलाना शुरू कर दिया जिसके पीछे तर्क यह दिया गया कि एंटीबायोटिक होने के कारण इसके पेट पर होने वाले दुष्प्रभाव को रोकने के लिए ऐसे किया गया है पर उनकी मंशा तभी स्पष्ट हो गयी जब इस नए कॉम्बिनेशन की दवा उन्होंने ४ से ८ रु० में बेचनी शुरू कर दी जिससे जिन रोगियों को इस सस्ते पर कारगर एंटीबायोटिक लाभ मिल जाता था वह मिलना बंद हो गया. क्या किसी भी दवा कम्पनी को इस बात की छूट दी जा सकती है कि वह किन्हीं दो दवाओं का सम्मिश्रण केवल अपने हित लाभ के लिए इस रास्ते से कर सकें ?
        सरकार को दवा क्षेत्र में भी एक पूर्ण अधिकार प्राप्त नियामक बनाना चाहिए जो दवा कम्पनियों और बाज़ार की ज़रूरतों पर पूरी तरह से नज़र रखे और आम लोगों तक सरकारी मंशा के अनुसार सस्ती दवाएं पहुँचाने में आने वाली बाधाओं पर भी ध्यान रखे. अभी तक एक बार नीति बन जाने के बाद जब तक कोई बड़ी शिकायत न हो कोई कार्यवाही इन दवा कम्पनियों पर सरकार नहीं कर सकती है क्योंकि उनके बाज़ार का भी सरकार पर दबाव रहता है. ऐसी स्थित में सरकार को इस पूरे नियंत्रण के खेल से खुद को अलग कर देना चाहिए और नियामक के सुझावों पर ही अमल करते हुए आगे की नीतियों को निर्धारित करना चाहिए. पूरी दुनिया में सिर्फ़ भारतीय रोगियों के साथ नए नए दवा सम्मिश्रणों के साथ जो खिलवाड़ किया जा रहा है उससे आज कोई भी चिकित्सक सहमत नहीं है पर ऐसे बिरले ही चिकित्सक होंगें जो इन सम्मिश्रणों को लिखने से मना करने का साहस दिखा पाते हों ? ऐसे स्थिति में जब रोगी चिकित्सक के पास विश्वास के साथ जाता है तो हर स्तर पर उसके साथ ठगी की जाती है. इस पूरे परिदृश्य को बदलने की ज़रुरत है क्योंकि यदि रोगियों को सही सरकारी नीतियों के कड़े अनुपालन के साथ सही मूल्य पर दवाएं उपलब्ध हो जाएँ तो उसके लिए बहुत बड़ी मदद हो सकती है पर आज के परिदृश्य में इसे सुधरने के लिए सरकार के पास कितने विकल्प हैं यह सभी जानते हैं.  
मेरी हर धड़कन भारत के लिए है...

1 टिप्पणी:

  1. आज 29/09/2012 को आपकी यह पोस्ट ब्लॉग 4 वार्ता http://blog4varta.blogspot.in/2012/09/4_29.html पर पर लिंक की गयी हैं.आपके सुझावों का स्वागत है .धन्यवाद!

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