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शनिवार, 8 सितंबर 2012

टप्पल, किसान और सरकार

             २०१० में टप्पल के किसानों पर ग़लत तरीके से चलाये गए मुक़दमों को वापस लेकर यूपी सरकार ने एक तरह से बिलकुल ठीक काम ही किया है क्योंकि जिस तरह से वहां पर किसानों का दमन किया गया था और उनके ख़िलाफ़ अपराधिक मुक़दमें दर्ज कराये गए थे उससे पूरे क्षेत्र में सरकारी तंत्र के ख़िलाफ़ एक आक्रोश पनप रहा था जिससे पार पाने और किसानों के घावों पर इस तरह का मलहम लगाने की भी बहुत ज़रुरत थी. आन्दोलन और चुनाव के समय सपा ने यह कहा था कि सत्ता में आने के बाद वह इन मुक़दमों को वापस लेने पर विचार करेगी जिसकी घोषणा अखिलेश ने एक्सप्रेस वे के उद्घाटन के समय भी की थी और इससे पहले अप्रैल में भी २४ किसानों पर से इस तरह के मुक़दमें वापस लिए गए थे. यह सही है कि किसानों या किसी भी अन्य के द्वारा इस तरह से अराजकता फैलाए जाने को सही नहीं ठहराया जा सकता है फिर भी समय समय पर पूरे देश में कहीं न कहीं किसानों से अधिग्रहीत की गयी भूमि के साथ इस तरह की समस्या सामने आती ही रहती है. समस्या विकास की नहीं है और न ही किसान इस तरह के विकास के विरोधी हैं पर जब राज्य सरकारें या अधिकारी अपने हितों को साधने के लिए किसानों के हक़ को कुचलने लगते हैं तो इस तरह के आन्दोलन बिना किसी बड़े नाम के अपने आप ही सामने आ जाते हैं.
            देश में आज भी भूमि अधिग्रहण कानून के बारे में केन्द्रीय स्तर पर कोई प्रभावी नीति नहीं है जिसका असर पूरे देश में आर्थिक विकास के लिए किये जाने वाले विभिन्न कामों पर दिखाई देता है. कुछ राज्य सरकारों से इस बारे में स्पष्ट नीतियां बनाकर अपने यहाँ उद्योगों के विकास के लिए नए मार्ग खोल दिए हैं जैसे कि गुजरात में औद्योगिक विकास के लिए राज्य में कितनी उत्सुकता रहती है यह इसी बात से जाने जा सकता है कि सिंगुर में टाटा के कारखाने के लिए ली गयी भूमि में विवाद होने पर गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी ने खुद रतन टाटा से संपर्क आकर उन्हें गुजरात आने का न्योता दिया और अनुकूल परिस्थितयों में बहुत ही कम समय में टाटा ने वहां पर अपने संयंत्र को स्थापित करके उत्पादन भी शुरू कर दिया. इतनी जल्दी सब कुछ होने के बाद भी किसी भी जगह से कोई विरोध के स्वर नहीं सुनाई दिए और किसी भी किसान या जिसकी भूमि ली गयी थी उसने भी कोई आपत्ति नहीं दर्ज की. ऐसी स्थिति में क्या गुजरात के इस मॉडल का अध्ययन करना आवश्यक नहीं है कि आख़िर जो काम देश के अन्य राज्यों में कई वर्षों तक नहीं हो पाता है वह गुजरात में इतनी आसानी से कैसे हो जाता है ? हो सकता है कि मुआवज़े की राशि गुजरात में सही ढंग से निकली जाती हो और जिनकी ज़मीन ली जाती है उनके लिए संयंत्र में नौकरी की व्यवस्था भी की जाती हो पर यह सब देश एक अन्य राज्य क्यों नहीं कर पा रहे हैं ?
           आज के युग में सरकारों को निर्णय लेने में जो तेज़ी दिखानी चाहिए वह वे नहीं दिखा पाती हैं जिसका असर यह होता है कि अनावश्यक रूप से नए नए विवाद सामने आते रहते हैं. मुलायम सरकार के समय रिलायंस पॉवर की दादरी परियोजना भी इसी तरह के विवादों के कारण ठप हो गयी थी पर अब प्रदेश में बिजली के संकट से निपटने के लिए अखिलेश सरकार उस परियोजना को फिर से चालू करवाने की संभावनाएं ढूंढ रही है. सवाल यहाँ पर नीतियों का भी नहीं बल्कि नियति का है क्योंकि जब तक सही नियति से काम नहीं किये जायेंगें उनमें विवादों की संभावनाएं बनी रहेंगीं. किसी भी बड़ी परियोजना या संयंत्र के लगाये जाने के लिए सरकार को पहले से अपने होमवर्क को ठीक तरह से करना चाहिए क्योंकि बिना पूरी संभावनाओ को टटोले बड़े फैसले नहीं किये जा सकते हैं. प्रदेश सरकार औद्योगिक विकास की बातें तो करती है पर किसी भी स्थिति में नीतियों को सही रूप देने की कोशिश करती नहीं दिखाई देती है जिससे लोगों में भ्रम की स्थिति बन जाती है. पिछले सबकों से सपा ने क्या सीखा है यह अब दादरी संयंत्र की प्रक्रिया आगे बढ़ने पर ही सामने आ पायेगा और अखिलेश किस तरह से मुलायम से अलग पहुँच रखकर विवादों को दूर रख पातें हैं यह आने वाला समय ही बताएगा.           
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