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सोमवार, 1 अक्तूबर 2012

प्राकृतिक संसाधन आवंटन या नीलामी ?

                देश के प्राकृतिक संसाधनों को किस तरह से उपयोग में लाया जाये इस बात पर देश के नेता एकमत नहीं हैं और जिस तरह से केंद्र सरकार ने २जी विवाद के बाद इस प्रकरण को राष्ट्रपति के माध्यम से सुप्रीम कोर्ट को राय देने के लिए संदर्भित किया था उससे यह आशा जगी थी कि इस राय के आने के बाद शायद देश का राजनैतिक तंत्र कुछ ऐसा खोजने में सफल हो जाये जिससे इन संसाधनों की व्याख्या की जा सके और आने वाले समय में इनका किस तरह से और किन नियमों के तहत देश हित में दोहन किया जाये ? पर जिस तरह से सुप्रीम कोर्ट ने अपनी राय में यह स्पष्ट कर दिया है कि यह नीतिगत मामला है और इस बारे में विधायिका ही निर्णय ले सकती है क्योंकि कोर्ट का काम कानून बनाना नहीं है उसके अनुसार क्रियान्वयन पर ध्यान देना है हाँ अगर नीतियों को किसी विशेष परिस्थितियों में किसी के लिए ढीला छोड़ा गया हो तो कोर्ट इस पर जांच कर सकती है. सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले के बाद एक तरह से विपक्ष को बड़ा झटका लगा क्योंकि उसने इस मसले पर सरकार को घेरने की नीति बना रखी थी पर कोर्ट ने उन्हें ही कटघरे में खड़ा कर दिया जिससे कुछ समय चुप रहने के बाद अब नेता लोग इस मसले पर बोलने लगे हैं. देश की समस्या यह है कि यदि फ़ैसला हक़ में आया तो उन्हें कोर्ट के रूप में संविधान के रक्षक दिखाई देने लगता हैं और यदि अपने अनुसार फ़ैसला नहीं हो पाए तो दबी जुबां से उसकी आलोचना शुरू कर दी जाती है.
           कुछ जगहों पर जिस तरह से लोग इन निर्णयों की आलोचना कर रहे हैं और हाल ही में चीफ जस्टिस पद से सेवानिवृत्त हुए जस्टिस कपाड़िया के बारे में जिस तरह से कहा जाना शुरू कर दिया है उसके बाद से यही लगता है कि लोगों को पूरी जानकारी नहीं होती है और वे केवल अपनी विचारधारा के अनुसार ही सोच लेते हैं. सबसे पहली बात तो यह कि इस मसले पर केवल जस्टिस कपाड़िया ने ही निर्णय नहीं दिया है क्योंकि जब कभी भी इस तरह के किसी बड़े मुद्दे पर राय की आवश्यकता होती है तो उसके लिए एक पूर्ण पीठ का गठन किया जाता है और वह संविधान के अनुसार ही अपना निर्णय सुनाने के लिए बाध्य होती है. पीठ के सदस्य किसी मुद्दे पर अपनी सहमति या असहमति दिखा सकते हैं पर उसके लिए भी उन्हें संविधान के दायरे में रहकर ही कुछ कहना होता है आम जनता या किसी नेता की तरह वे कुछ भी कहने के लिए पूरी तरह से स्वतंत्र नहीं होते हैं. संविधान के अनुसार यह देखा जाना चाहिए कि क्या कोर्ट यह कह सकती थी कि आवंटन की पूरी प्रक्रिया ही ग़लत है जैसा कि कुछ दल सरकार को घेरने के लिए इस निर्णय में देखना चाहते थे ? कोर्ट ने एक बात स्पष्ट रूप से कही है कि सरकार इस तरह से हर काम को व्यावसायिक नज़रिए से नहीं देखा सकती है कई बार जन कल्याणकारी योजनायें और देश के संसाधनों को देखते हुए भी केवल लाभ की बात नहीं की जा सकती है.
          यह सही समय है कि देश के राजनैतिक दल और नेता इस बात की समीक्षा सड़कों पर करने के स्थान पर संसद में करें क्योंकि किसी भी जनसभा या किसी अन्य सम्मलेन में कही गयी बातों पर बहस नहीं हो सकती है और अच्छा हो कि इस पूरे मसले पर नीति निर्धारण के लिए सरकार एक पूर्णकालिक सत्र बुलाये जिसमें केवल इसी मुद्दे पर विचार कर किसी हल को निकालने का काम किया जाये. जनता की स्मृति बहुत कम होती है और वह बहुत जल्दी ही यह सब भूल जाती है जिस बात का लाभ हमेशा से ही ये दल और नेता उठाते रहते हैं ऐसी स्थिति में एक बार फिर से हम यह भूल जायेंगें और नेता अपने हिसाब से देश के संविधान और कानून की व्याख्या करने के लिए स्वतंत्र हो जायेंगें ? आख़िर देश कि जनता को इस तरह का अधिकार क्यों नहीं दिया जाता है कि इस तरह के मुद्दे पर आवश्यकता पड़ने पर विशेषज्ञों को अपनी बातें जनता के सामने रखने के अवसर दिए जाने चाहिए और उनके आधार पर जनता को भी जनमत संग्रह करने की छूट होनी चाहिए जिससे नेता लोग केवल अपने दम पर कुछ भी करने के लिए हमेशा ही स्वतंत्र न रह सकें तथा जनता का सतत दबाव उन पर होना ही चाहिए, पर किसी भी दबाव को न मानने वाले नेता अपनी गर्दन जनता के हाथ में क्यों सौंपना चाहेंगें भले ही किसी भी दल से क्यों न आते हों ?      
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