मेरी हर धड़कन भारत के लिए है...

मंगलवार, 2 अक्तूबर 2012

लाहौर में भगत सिंह

                      पाकिस्तान में लाहौर के जिला प्रशासन ने जिस तरह से शादमान चौक को एक बार फिर से अमर शहीद भगत सिंह के नाम पर रखने की घोषणा की है उससे यही लगता है कि भले ही स्थानीय दबाव के कारण ही सही अब पाक में कुछ लोगों ने यह मान लिया है कि आज़ादी की जो लड़ाई लड़ी गयी थी उसमें अविभाजित भारत के सभी लोगों का पूरा योगदान था और भारत-पाक की आज़ादी का इतिहास आज भी उसकी संस्कृति और विरासत की तरह साझा ही है. अभी तक पाक में जिस तरह से इतिहास को पढ़ाया जाता है उसमें आज़ादी के संघर्ष को केवल पाकिस्तान बनने तक ही सीमित रखा जाता है और हजारों साल की जो साझा विरासत दोनों देशों की थी उसके बारे में वहां कुछ भी नहीं पढ़ाया जाता है. १९४७ से पहले लाहौर आज़ादी के परवानों का मनचाहा ठिकाना होता था क्योंकि क्रन्तिकारी आन्दोलनों को पंजाब से ही अधिक गति मिला करती थी और पंजाब में तब लाहौर ही सबसे अधिक सक्रिय स्थान हुआ करता था. भगत सिंह को फाँसी दिए जाने के बाद से १९४७ में आज़ादी मिलने तक शादमान चौक भगत सिंह चौक के नाम से ही जाना जाता था पर हर चीज़ बाँट लेने की धुन में पाकिस्तान ने आज़ादी के इस वीर योद्धा को भी भारत पाक के बीच में बाँट दिया था और चौक का नाम बदल दिया गया था.
               यह भारत के लिए किसी भी तरह से कोई राजनैतिक मायने नहीं रखता है क्योंकि भारत ने जिस तरह से देश में विभिन्न स्थानों पर जिस तरह से आज़ादी से जुड़े हुए हर व्यक्ति की यादों को संजो कर रखा है वैसी मिसाल कहीं और नहीं मिल सकती है पर पाक के लिए यह वहां की सरकार के लिए मुसीबत का सबब भी बन सकता है. जब १९४७ तक हर बात साझा ही थी तो चाहकर भी भारत या पाक इस सच्चाई से खुद को अलग नहीं कर सकते हैं. भारत के इतिहास में सीमान्त गाँधी खान अब्दुल गफ्फार खान का भी उतना ही ज़िक्र है जितना अन्य लोगों का पर क्या पाक ने उन लोगों को पूरा सम्मान दिया जो आज़ादी की लड़ाई में अपना सब कुछ दांव पर लगाकर जुटे हुए थे ? यह सही है कि पाक ने अब जिस तरह से केवल शादमान चौक से अपनी भूल सुधारने की कोशिश की है उसका असर आने वाले समय में ही दिखाई देगा क्योंकि जब तक पाक में सक्रिय आतंकियों की मंशा इस बारे में स्पष्ट नहीं हो जाती है कि वे इस परिवर्तन को किस हद तक मानते हैं तब तक कुछ भी नहीं कहा जा सकता है. पाक में सक्रिय एक शांति समूह जो भगत सिंह के नाम पर इस चौक का नाम रखवाने के लिए प्रयत्नशील था अब वहां पर भगत सिंह की प्रतिमा लगवाना चाहता है. इस्लाम में जसी तरह से किसी भी तरह की मूर्ति को ग़लत माना जाता है उस स्थिति में क्या भगत सिंह की प्रतिमा सुरक्षित भी रह पायेगी ?
                 इस बारे में केवल यही आशा की जा सकती है कि केवल नामकरण के बाद ही जिस तरह से शहीद भगत सिंह को पाक ने अपनी श्रद्धाजंली दे दी है बस वही काफी है क्योंकि पाक में आज इस्लाम के नाम पर जो तत्व समाज, सेना और सरकार पर हावी हैं वे किसी भी दिन इस मंशा का विरोध कर सकते हैं और उस स्थिति में पाक में किसी में भी यह दम नहीं है कि इस चौक को भगत सिंह चौक के नाम से पुकार सके ? इसलिए यह अच्छा ही होगा कि आज़ादी के इस मतवाले की कोई भी प्रतिमा पाक में न ही लगे तो अच्छा है क्योंकि कल कोई आतंकी दीन और ईमान का हवाला देते हुए इसे तोड़ने का फतवा जारी करवा देगा जिससे अनावश्यक रूप से भारत के लोगों के मन में पाक के लिए एक बार फिर से नफ़रत ही बढ़ेगी. आतंकियों और कट्टरपंथियों को यह समझा पाना मुश्किल होगा कि भगत सिंह इतिहास का हिस्सा हैं और उन्हें भी किसी सिरफिरी तालिबानी हुकूमत की तरह तोप से उड़ाने का प्रयास किया जायेगा ? भगत सिंह हमारी साझा विरासत थे, हैं और हमेशा रहेंगे इसलिए उनको किसी भी तरह के राजनैतिक, धार्मिक विवाद में घसीटा जाये इस अच्छा यही होगा कि लाहौर प्रशासन ने जो कुछ भी उनके सम्मान में किया है उतना ही काफी है और अगर संभव हो तो भगत सिंह के साथ ही शहीद हुए राजगुरु और सुखदेव से जुड़ी कुछ यादों को हर वर्ष मनाने के लिए लाहौर जाने के लिए यदि पाक सरकार कुछ भारतीयों को वीज़ा देने में आसानी कर दे तो यही बहुत होगा.
 
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