मेरी हर धड़कन भारत के लिए है...

शनिवार, 24 नवंबर 2012

आतंकियों पर नरमी

                 देश में जिस तरह से केवल वोटों के लालच में कुछ भी करने की होड़ बढती चली जा रही है उससे आने वाले समय में सरकारों के लिए काम करना मुश्किल होने वाला है. इलाहाबाद हाई कोर्ट ने जिस तरह से वाराणसी विस्फोट से जुड़े लोगों के ख़िलाफ़ केस वापस लेने की अनुमति मांगने पर अखिलेश सरकार की खिंचाई की है वह उसकी हकदार है बल्कि यदि कोई सरकार ऐसा करने का प्रयास करे तो उसकी जगह सभी दलों के अनुपात के अनुसार साझा सरकार बना देने का नियम भी देश में होना चहिये जिससे कोई भी सरकार इस तरह के हथकंडों से अपनी मानसिकता को दिखाने से परहेज़ कर सके. इस प्रकरण से यही लगता है कि सरकारें आज कुछ भी करने पर आमादा हो चुकी हैं अब इस बात पर विचार करने की ज़रुरत है कि क्या देश की सुरक्षा से जुड़े मुद्दों पर इस तरह की राजनीति करने की अनुमति किसी को भी दी जा सकती है या इस बारे में कोई स्पष्ट नीति बनाये जाने की आवश्यकता है ? वोटों के चक्कर में केवल नरमी बरतने वाले यह कभी भी नहीं समझ पायेंगें कि इस तरह की घटनाओं में मरने वाले लोगों के परिवारों पर क्या बीतती है जब इस तरह की बातें की जाती हैं और नागरिकों की सुरक्षा में अपनी जान पर खेल जाने वाले सुरक्षा बलों के जवानों के मनोबल पर कितना बुरा असर पड़ता है क्योंकि उनके द्वारा की गयी सारी कवायद किसी सरकार की एक लालची और देश की सुरक्षा को चोट पहुँचाने की नीति की भेंट चढ़ जाया करती है.
             इस बारे में केवल मुसलमानों के प्रति नरमी दिखाने से जहाँ एक तरफ़ शायद पार्टियों को कुछ वोट मिल जाते हैं पर लम्बे समय में होने वाले नुक्सान का आंकलन कर पाने में कमज़ोर नज़र वाले नेता यह भूल जाते हैं कि एक दिन आतंक का यह साया उन तक भी पहुँच जायेगा और तब उनको बचाने के लिए खुले रहने वाले रास्ते भी खुद ही बंद हो जायेंगें ? आख़िर मुंबई और वाराणसी के हमलों को किस तरह से अलग अलग चश्में से देखा जा सकता है जबकि केवल हताहतों की संख्या छोड़ दी जाये तो दोनों ही आतंकी हमले थे और दोनों में ही आतंकियों के हाथों निर्दोषों की जाने लेने का काम किया गया था. शिंदे ने जहाँ इतने इनों से लंबित मसले को अपनी मराठी पृष्ठभूमि होने के कारण जल्दी से हल करने में भूमिका निभाई वहीँ दूसरी तरफ़ यूपी सरकार इन मामलों के आरोपियों को बचाने का काम करने में लगी हुई है. अगर कसाब को हमला करते हुए सबूत के साथ न पकड़ा गया होता तो शायद उसे भी सबूतों के अभाव में बरी कर देने की मांग कुछ नेताओं द्वारा की जाती और कुछ वोट बटोरने के लिए ललचाते हुए देखा जा सकता ? किसी भी परिस्थिति में इस तरह की घटिया मानसिकता के साथ चलायी जाने वाली सरकार से आख़िर क्या उम्मीद की जा सकती है जब कोई भी कुछ भी सही करने के लिए राज़ी ही नहीं है. अखिलेश ने मुलायम के दबाव में ही यह फैसला लिया होगा पर इससे उनकी युवा, प्रगतिशील और निष्पक्ष होने की छवि को बहुत धक्का लगा है.
            सरकार में बैठकर इस तरह की हरकतें करना बहुत आसान है पर जब चलती हुई गोलियों के बीच कुछ निर्दोषों को बचाने का काम करना हो तो वह बहुत मुश्किल है. आख़िर अखिलेश सरकार आम मुसलमानों को यह समझाने का प्रयास क्यों नहीं करती है कि उन्हें आतंकियों के चंगुल से अपने बच्चों को बचाने का प्रयास करना चाहिए क्योंकि दारुल उलूम ने भी किसी निर्दोष की हत्या को इस्लाम में सबसे ग़लत बताया है फिर चंद मुसलमान युवा आख़िर किस तरह से इन आतंकियों के जाल में फंसते जा रहे हैं ? क्या सरकार चलने वालों की यह ज़िम्मेदारी नहीं है वे मुसलमानों को डराने के स्थान पर पूरे सम्मान से जीने का हक़ दिलवाएं जिससे किसी इस्लामी नाम के होने से ही उन पर लोगों को संदेह न होने लगे ? आज अमेरिका आने जाने वाले मुसलमानों से पूछकर देखिये कि उन पर भी इस तरह से नज़र रखी जाती है जैसे वे आतंकी ही हों. पूर्व राष्ट्रपति डॉ कलाम और फिल्म अभिनेता शाहरुख़ खान इस त्रासदी को झेल चुके हैं पर भारत के कड़े विरोध के बाद भी ये देश अपने नियमों में नरमी बरतने के लिए तैयार दिखाई नहीं देते हैं. आज से २० वर्ष पहले तक तो किसी को पुलिस इस तरह की घटनाओं के लिए ज़िम्मेदार नहीं ठहरती थी पर आज इस तरह की मानसिकता वाले कुछ लोग आतंकियों के स्लीपिंग सेल के रूप में काम कर रहे हैं और जब वे पुलिस की ज़द में आ जाते हैं तो खुद को निर्दोष बताने लगते हैं. देश को नीतियों के साथ उन पर अमल करने वाले मज़बूत नेता भी चाहिए जो मुसलमानों की स्थिति में वास्तव में कुछ सुधार कर सकें और उनको संदेह के घेरे से निकालने का काम भी दृढ़ता से कर सकें.          
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