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बुधवार, 5 दिसंबर 2012

बेटी का जन्म ?

                   गाज़ियाबाद में एक महिला को बेटी जनने के कारण प्रताड़ित किये जाने की घटना से देश में पुराने समय से बेटों की चाह रखने की मानसिकता एक बार फिर से उजागर हुई है. यह सही है कि आज के समय में बेटियों को बेटों के बराबर माने जाने की शुरुआत हो चुकी है पर अभी वह जिस स्थिति में है उससे पूरी तरह से संतुष्ट नहीं हुआ जा सकता है क्योंकि आज भी देश के बहुत सारे भागों में इस मानसिकता के साथ जीने वालों की कमी नहीं है कि परिवार और वंश बेटों से ही चला करते हैं ? प्राचीन काल से चली आ रही इस कुरीति को दूर करने के लिए समाज में बहुत सारे प्रयास किये जा रहे हैं फिर भी उसका उतना असर दिखाई नहीं देता जितना होना चाहिए ? आख़िर क्या कारण है कि भारतीय समाज आज भी बेटियों के योगदान को मानने के स्थान पर बेटों के कर्मों को ही प्राथमिकता दिया करता है क्यों नहीं हमारे समाज में बेटियों को वह दर्ज़ा मिल पाता है जिसकी वे जन्म से ही हक़दार होती हैं ? जबकि आज के समय में बेटियों ने खुद को बेटों से बहुत आगे और बहुत अच्छा साबित कर दिया है उसके बाद भी उनके साथ हमारा व्यवहार कहीं से भी बदलता दिखाई नहीं देता है.
         आज सामाजिक स्थिति यह है कि बेटों को बार बार फेल हो जाने के बाद भी पढ़ाए जाने को प्राथमिकता दी जाती है जबकि बेटी के एक बार ही कम अंक आने पर उसे चेतावनी जारी कर दी जाती है कि उसे पढ़कर क्या करना है अब इतना लिख पढ़ तो लेती ही है कि लिख पढ़ ले ? जबकि पूरे देश के हर बोर्ड के परीक्षा परिणामों पर यदि नज़र डाली जाये तो एक बात सामने आती है कि बेटियों ने कम सुविधा के बाद भी अधिक सुविधा भोग कर पढ़ाई करने वाले बेटों से हमेशा ही बहुत आगे रहना सीखा है इतने के बाद भी हमारे रूढ़िवादी समाज की आँखें नहीं खुलती हैं और वे बेटों को जिन सुविधाओं को देते रहते हैं अगर उनका एक हिस्सा भी बेटियों को दे दें तो बेटियां बहुत आगे बढ़कर अपने परिवार को गौरवान्वित करने का कोई अवसर नहीं खोती हैं. इतने के बाद भी जब समाज में बेटी के जन्म लेने पर उसकी माँ पर आरोप लगाये जाते हैं तब उस पर क्या बीतती होगी जबकि वैज्ञानिक आधार पर भी माँ की तरफ़ से हमेशा ही एक्स गुणसूत्र होता है वहां पर भी भेद पुरुष के एक्स या वाई गुणसूत्र से ही होता है जिससे बच्चे का लिंग निर्धारण होता है.
        जिस काम में महिला का कोई दोष ही नहीं होता उसके लिए भी उसे दोषी ठहराए जाने की पुरानी परंपरा देश में चली आ रही है. परिवार और समाज के कारण बचपन से ही बेटियों को सही ग़लत हर बात पर चुप रहना सिखाया जाता है जिसका असर उनके पूरे जीवन पर पड़ता है क्योंकि जब तक बेटियों को हम यह हिम्मत नहीं देंगें कि वे अपने लिए सही ग़लत का चुनाव खुद ही करें तब तक उनके साथ जो भी होता रहेगा उसे वे सही ही मानती रहेंगी और चुप रहकर अत्याचार सहती रहेंगीं. देश में शक्ति की उपासना की जाती है और बिना नारी शक्ति के पूरी व्यवस्था के छिन्न भिन्न होने में कोई समय नहीं लगने वाला है फिर भी सच्चाई को जानते हुए हम अपनी सुविधानुसार व्यवहार करने को प्राथमिकता देते रहते हैं. जब तक बेटे और बेटी में यह भेद घर घर में होता रहेगा तब तक पूरे समाज में यह मानसिकता पनपती रहेगी कि बेटियां कुछ कमतर ही हैं. जिन घरों में बचपन से बेटियों को बात बात पर बेटों के सामने दबाया जाता है उन्हीं घरों के बेटे बड़े होकर अपनी पत्नी को वह सम्मान कभी भी नहीं दे पाते हैं जो एक महिला को मिलना चाहिए. अब केवल बातें करने के स्थान पर कुछ और जागरूकता फ़ैलाने का समय है जिससे बेटियों को बराबरी का हक़ मिल सके और किसी महिला को बेटी जनने पर इस तरह की स्थितियों का सामना न करना पड़े.   
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