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सोमवार, 14 जनवरी 2013

क़ीमती सेकंड और सवाल

            दिल्ली पुलिस ने अपनी कार्य प्रणाली में महत्वपूर्ण बदलाव करते हुए इस बात का विज्ञापन जारी कर दिया है कि यदि कोई व्यक्ति किसी घायल को किसी अस्पताल तक पहुँचाता है तो अब उससे वे बिना बात के सवाल नहीं पूछे जायेंगें जो अभी तक पूछे जाने के डर से ही आम लोग सड़क पर तड़पते हुए किसी घायल की सहायता समय पर नहीं कर पाते हैं. विज्ञापन में दिल्ली पुलिस का यह कहना कि जब 'हर सेकंड क़ीमती हो तो सवाल नहीं' अपने आप में ही बहुत महत्वपूर्ण है क्योंकि जिस तरह से हर जगह पुलिस नहीं पहुँच सकती है उसी तरह से हर जगह किसी चिकित्सा सेवा का पहुँचना भी मुश्किल ही होता है ऐसे परिस्थिति में यदि सहायता करने वाले को किसी भी कानूनी पचड़े से सुरक्षित कर दिया जाये तो बहुत सी ऐसी जाने बचायी जा सकती हैं जो समय से सहायता न मिल पाने के कारण चली जाती हैं. पुलिस को इस बारे में और मानवीय होने के साथ ही ऐसे किसी भी मामले में त्वरित कार्यवाही के लिए एक छोटा बल हर थाने में वैकल्पिक रूप से तैयार रखने की दिशा में भी काम करना होगा क्योंकि जब पूरी तैयारी होगी तभी किसी मुद्दे पर सही तरह से काम किया जा सकेगा.
        पुलिस के स्तर पर यह शुरुआत अच्छी है और इसे जल्दी ही पूरे देश में लागू किया जाना चहिये क्योंकि जब तक इस तरह से काम करने की संस्कृति विकसित नहीं होगी तब तक कोई भी किसी अनजान की सहायता करने के लिए आगे नहीं आएगा जिस कारण से भी बचायी जा सकने वाली जाने लापरवाही से जाती ही रहेंगीं. केवल पुलिस के परिवर्तन पर काम करने से कुछ हासिल नहीं होने वाला है क्योंकि जिस तरह से अस्पतालों में दुनिया भर की कागज़ी कार्यवाही पर निर्भर रहा जाता है उस स्थिति में समय से अस्पताल तक पहुँचने वाले का तवरित गति से इलाज भी शुरू किया जा सके इस बारे में भी कड़े और प्रभावी कानून बनाये जाने की ज़रुरत है क्योंकि आज के समय भी चिकित्सक पुलिस के आने तक इलाज शुरू नहीं करते हैं जिससे सही जगह तक पहुँच कर भी घायल को समय से सही इलाज नहीं मिल पाता है ? जब हमारे पूरे कानून में ही इस तरह की ख़ामियां हैं तो केवल पुलिस पर ही हर बात की ज़िम्मेदारी और दोषारोपण क्यों होना चाहिए  माहौल ऐसा होना चाहिए जिससे सभी को सही सहायता समय से मिल सके.
        इस तरह के बदलाव के बारे में अब पुलिस के साथ अस्पतालों को भी आगे आने की ज़रुरत है क्योंकि आज ट्रॉमा सेंटर लिखे हुए बहुत सारे सरकारी और निजी अस्पताल मिल जायेंगें पर वहां पर किस तरह से दुर्घटना में घायल हुए लोगों का इलाज किया जाए इस बारे में अभी तक कोई स्पष्ट दिशा नर्देश नहीं हैं क्योंकि राजमार्ग प्राधिकरण अपने हिसाब से काम करता है और पुलिस और अस्पताल अपने हिसाब से ? अब इस पूरे तंत्र को कहीं से निचले स्तर से सुधारने की ज़रुरत सामने आ चुकी है क्योंकि जब तक व्यवस्था में अमूल चूल परिवर्तन नहीं किया जायेगा तब तक इस तरह के छोटे छोटे बदलावों का उतना असर नहीं दिखाई देगा जो हमें दिखाई देना चाहिए. पूरे देश में इस बारे में आवश्यक संशोधन करके परिवर्तन करने का समय अब आ गया है क्योंकि केवल देश के कुछ हिस्सों में कोई ऐसा कानून बने जो बाकी हिस्सों में भी ज़रूरी हो तो पूरे कानून का स्वरुप ही बदल जाता है. देश को सही और प्रभावी कानून के साथ अब मानवीय चेहरे के साथ काम करने वाली पुलिस, प्रशासन और अस्पतालों की ज़रुरत है क्योंकि केवल दिल्ली ही देश नहीं है और देश भर में बदलाव लाने के लिए संसद को ही पहल करनी होगी भले ही कानून व्यवस्था राज्य का मामला हो पर केंद्र अपनी राय तो राज्य सरकारों को दे ही सकता है.    
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