मेरी हर धड़कन भारत के लिए है...

मंगलवार, 5 मार्च 2013

नीचता या मजबूरी ?

              संसद पर आतंकी हमले के मुख्य आरोपी और मौत की सज़ा पाए आतंकी अफज़ल गुरु को फाँसी दिए जाने के बाद से ही जिस तरह से पूरे देश में दो राष्ट्रीय पार्टियों कांग्रेस और भाजपा समेत जम्मू कश्मीर में जो कुछ भी चल रहा है उससे लोकतंत्र के मुख्य स्तम्भ पर हमला करने वाले आतंकियों के प्रति देश में भ्रम की स्थिति ही उत्पन्न होती है. पूरे देश में जिस तरह से अफज़ल की फाँसी पर आशा के अनुरूप सामान्य प्रतिक्रिया आई थी उसके बाद मामला शांत हो जाना चाहिए था पर जम्मू कश्मीर के कुछ नेताओं ने जिस तरह से अफज़ल के पक्ष में बयान देने शुरू किए और फिर वहां की सरकार को भी दबाव में भारत सरकार पर ऊँगली उठाने के लिए बाध्य किया गया वह भारतीय संसदीय इतिहास में सबसे ख़राब समय ही कहा जा सकता है. यदि सामान्य रूप से देखा जाये तो कश्मीर में जिस तरह से अलगाव वादी और राजनैतिक लोग विद्रोह की आशा पाले हुए बैठे थे उसे सामान्य चौकसी के द्वारा ही रोकने में पूरी सफलता मिली और जब पूरी घाटी में अब इस बात को लेकर कोई बड़ा आन्दोलन नहीं चल रहा है तो फिर ये नेता आज पुनः विधान सभा में अनर्गल प्रस्तावों पर बहस करके नेता जनता को उकसाने का काम करना चाहते हैं.
        यह सही है कि आज भी घाटी के लोगों पर पाक समर्थित इस्लामी आतंकियों का प्रभाव बना हुआ है पर जिस तरह से अब घाटी में जन जीवन सामान्य होता चला जा रहा है उसके बाद विधान सभा में इस तरह की बातें करने का क्या मतलब बनता है. सदन में भारत सरकार पर यह आरोप लगाए जा रहे हैं कि उसने राज्य सरकार की अनुमति नहीं ली तो उससे ही वहां के नेताओं की मानसिक स्थिति का पता चल जाता है क्योंकि अभी तक किसी भी देश में ऐसा कानून नहीं है कि राज्य के अपराधी के अपराध करने पर उसे सज़ा देने से पहले राज्य के सीएम और राज्य सरकार पूछा जाए ? यह तो भारतीय संविधान की छूट और मानवीयता है कि अफज़ल जैसे आतंकी कानून की ओट में इतने दिनों तक जिंदा रह जाते हैं वरना इस्लामी देशों में इस तरह के अपराधों पर अपराधी के साथ क्या सलूक किया जाता है यह किसी से भी छिपा नहीं है. भारतीय कानून और संसद की सर्वोच्चता पर संदेह नहीं किया जा सकता है फिर भी कुछ तथाकथित मानवाधिकार वादियों को अफज़ल की फाँसी से मानवाधिकारों का उल्लंघन होता दिखाई देता है ?
       आज कश्मीर की जनता भी अपना भला बुरा सोचना शुरू कर चुकी है जिस कारण से भी वहां पर उतनी उग्र प्रतिक्रिया देखने को नहीं मिली जिसकी केंद्र और राज्य सरकार को आशंका और पाक समर्थक नेताओं को आशा थी. यदि घाटी के नेता इतने लायक होते तो कश्मीर के इस परिवर्तन को महसूस कर लेते और इस तरह कि जो भी प्रतिक्रयाएं दिखाई दे रही हैं वे भी नहीं आती क्योंकि आम लोग वहां पर आतंक के चंगुल से बाहर निकल कर अब खुली हवा में सांस लेना सीख चुके हैं. आज जिन नेताओं को अफज़ल के प्रति सहानुभूति है यदि भारत सरकार और राज्य सरकार द्वारा उनकी सुरक्षा हटा ली जाए तो जिन आतंकियों के मानवाधिकारों की बातें वे कर रहे हैं वे ही उन्हें एक दिन के अन्दर ही मार डालेंगें यह सच कश्मीर के सभी नेता जानते हैं तब भी वे भारतीय सुरक्षा घेरे में रहते हुए भी अपनी ज़बान को लगाम में रखने की कोशिश करते नहीं दिखाई देते हैं ? आज के कश्मीर को वहां के नेताओं को भी समझना होगा और आने वाले कुछ समय में ऐसा परिवर्तन भी दिखाई देगा जब घाटी की जनता नेताओं से ऊब कर विकास के बारे में सोचने लगेगी तब पाक से आयातित धर्म की अफीम चटा कर अपनी राजनीति चमकाने वाले नेताओं के बेहोश होने का समय आ ही जाएगा.   
   
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2 टिप्‍पणियां:

  1. नीचता और राजनैतिक मजबूरी दोनों।

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  2. नीचता ही कहा जायेगी,हर बात में टांग अडाना नेताओं की परम्परा बन गयी है.

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