मेरी हर धड़कन भारत के लिए है...

गुरुवार, 9 मई 2013

सांसद, संसद और नियम

                          लोकसभा में आज़ाद भारत के इतिहास में पहली बार सदन में सत्र समाप्ति के समय बजने वाले राष्ट्र गान के समय बसपा के एक सांसद शफी-उर-रहमान बर्क ने जिस तरह से सदन से उठकर बाहर चले गए और उसके बाद लोक सभाध्यक्ष मीरा कुमार ने इस पर अपनी कड़ी नाराज़गी जताई उससे यही लगता है कि लोकतंत्र के सबसे बड़े भवन में पहुंचकर भी कुछ लोगों को केवल अपना ही ध्यान रहता है जबकि किसी भी सार्वजनिक पद पर पहुँचने के बाद किसी भी व्यक्ति की निजता समाप्त हो जाती है और उसका सार्वजनिक जीवन शुरू हो जाता है. इस तरह के किसी भी पद तक पहुंचे हुए लोगों से कम से कम यह आशा तो की ही जाती है कि वे उन सामान्य नियमों का सम्मान अवश्य करेंगें जो सार्वजनिक रूप से अपनाए जाते हैं ? इस बारे में मीरा कुमार द्वारा अपनी नाराज़गी जताने के बाद अब बर्क़ के लिए स्पष्टीकरण देना आवश्यक हो जायेगा क्योंकि इसे सदन की अवमानना के तौर पर ही देखा जायेगा और सदन की सर्वोच्चता की रोज़ ही क़समें खाने वाले माननीय किस तरह से वहां पर इस तरह का व्यवहार स्वीकार करेंगें यह देखने का विषय होगा.
                         देश में वन्दे मातरम को लेकर जिस तरह की अनावश्यक राजनीति को आगे लाया जाने लगा है उस परिस्थिति में कभी भी कोई भी व्यक्ति इस तरह की हरक़त कर सकता है. इस बारे में किसी भी कारण से सदन की परम्पराओं का सम्मान न कर पाने वाले सदस्यों की सदस्यता को अविलम्ब समाप्त कर अगले १० वषों तक किसी भी तरह का चुनाव लड़ने पर पाबंदी लगा दी जानी चाहिए. इस तरह की किसी भी घटना को धर्म के चश्में से देखने के स्थान पर राष्ट्र के नियमों के अनुसार देखा जाना चाहिए क्योंकि देश का संविधान राजनीति में धर्म के घालमेल का किसी भी स्तर पर समर्थन नहीं करता है फिर भी सभी राजनैतिक दल और नेता धर्म के इस तरह के इस्तेमाल से परहेज़ नहीं करते हैं ? इस तरह की किसी भी घटना पर किसी भी दशा में लीपा पोती नहीं की जानी चाहिए और सम्बंधित संसदीय दल के नेता को भी सदन में बुलाकर स्पष्ट रूप से चेतावनी जारी कर देनी चाहिए जिससे वह भी अपने सदस्यों को सदन में आवश्यक संसदीय आचरण के लिए स्पष्ट आदेश जारी कर सकें. संविधान में मिली किसी भी तरह की छूट का किसी भी परिस्थिति में इस तरह से दुरूपयोग नहीं किया जाना चाहिए.
                      देश में पहले ही वन्दे मातरम को लेकर अनावश्यक विवाद होता ही रहता है पर किसी भी देश के सर्वोच्च सदन में जाने से पहले सदस्य को राष्ट्र, संविधान और विधि को बनाये रखने की शपथ दिलाई जाती है और सभी नए पुराने सदस्यों को संसदीय नियमों की पूरी जानकारी भी दी जाती है. ऐसी परिस्थिति में किसी भी व्यक्ति को इन सामान्य नियमों से छूट कैसे दी जा सकती है यह भी सोचने का विषय है. चूंकि यह घटना पहली बार ही हुई है इसलिए मामले में स्पष्टीकरण मिल जाने के बाद आने वाले समय में इस तरह कि किसी भी घटना के होने पर सदस्य की सदस्यता के साथ उसके वेतन-भत्ते और पेंशन को भी समाप्त कर दिए जाने के कठोर नियम की भी देश को आवश्यकता है. यह संसदीय परंपरा है और जो व्यक्ति इस परंपरा से इत्तेफ़ाक नहीं रखता है उसे चुनाव लड़कर सदन में जाना ही नहीं चाहिए क्योंकि जो परम्पराओं का सम्मान नहीं कर सकता है वह सार्वजनिक जीवन में रहकर देश और समाज की क्या सेवा कर पायेगा यह सभी जानते हैं ? इस मामले को किसी बहाने से छिपाकर गलत परंपरा को आगे बढ़ाने की छूट किसी को भी नहीं दी जा सकती है इसलिए अब सभी सांसदों को संसदीय पाठ एक बार फिर से पढ़ाने की आवश्यकता है.      
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